नवोत्पल गुरुवारीय विमर्श

 


Tuesday, October 27, 2009

गाँधी और मै: अभिनव उपाध्याय

मुझे लगता है कि मैं आज तक गांधी को ठीक से जान नहीं पाया। बहुत सारी छोटी, बड़ी, पतली मोटी किताबें पढीं,लोगों की टिप्पणियां  पढ़ी लेकिन हर बार लगा गांधी केवल इतने ही नहीं हैं अभी इससे अलग हैं।  गांधी को जिसने जैसे देखने की कोशिश की गांधी उसे वैसा ही दिखते हैं. मुझे शायद गांधी सबसे अधिक तब करीब लगते हैं जब मैं अपने को असहाय महसूस करता हूं। लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि मेरा मानना है कि मजबूती का नाम महात्मा गांधी।

गांधी को और जानने या यूं कहें खूब जानने का मन तब किया जब मां बाप की बड़ी उम्मीदों के बाद भी मैं दसवीं में फेल हो गया (मैं शुरु से ही गणित में उस्ताद नहीं था और सच कहूं तो अब भी नहीं हूं जिन्दगी के जोड़ घटाने में अक्सर हासिल छूट ही जाता है। )

फेल होने के बाद मैं बड़े संकोच से लोगों के सामने जाता और अगर घर पर रिश्तेदार आ जाते तो मेरी तो हालत खराब.. क्योंकि जो आता मेरे फेल होने पर अफसोस जताता, कोई मेरी गलती बताता लेकिन एक रिश्तेदार आए और उन्होंने  बताया कि कैसे असफलता से हौंसला न हार कर मंजिल को पाया जा सकता है इसके लिए उन्होंने गांधी का उदाहरण दिया। उन्होंने बताया कि महात्मा गांधी भी पढ़ाई में कोई उस्ताद नहीं थे। बस क्या था, मेरे दिमाग में पहली क्लास से लेकर 10वीं तक के बीच जितने भी गांधी के चित्र उनसे जुड़ी बांते जानता था वह घूम गई। मैं महात्मा गांधी के बारे में तब इतना ही जानता था कि यह बुजुर्ग आजादी की लड़ाई का हीरो था जो  लाठी-डंडा खाया और देश को आजाद कराया, बस।
मुझे यह कहने में जरा भी संकोच नहीं कि तब मेरे प्रिय भगत सिंह और सुभाष चन्द बोस थे (मैं आज भी उनका आदर करता हूं) जो बंदूक चलाते थे। हम बचपन में भी अगर बाबा के कंधों पर मेला देखने जाते तो बंदूक लेने की ही जिद करते थे। लेकिन फेल होने के बाद मैं गांधी से जुड़ी किताबें पढ़ने लगा। गणित पर अधिक ध्यान देने लगा और बमुश्किल पास भी हो गया। फिर पढ़ने की ऐसी लत लगी कि कई किताबें पढ़ी। दुनिया को नए सिरे से समझना और देखना शुरू किया।

मुझे आश्चर्य होता है कि गांधी ने अहिंसा सत्याग्रह के जो प्रयोग किए वह आसान नहीं थे। आज भी मैं अपनी व्यक्तिगत कई समस्याओं का समाधान गांधी के तरीके से ही ढूंढता हूं। मैं जब गांधी के विचारों को अपने दोस्तों को बताता था तो कुछ मित्रों द्वारा बेकार, कमजोर या कुछ हद तक बेवकूफ भी कह दिया जाता था (कह दिया जाता हूं)। लेकिन राजनीतिशास्त्र का  विद्यार्थी और वर्तमान में एक पत्रकार होने के कारण मैं गांधी की दूर दृष्टि का कायल हूं। बहुत सारी समस्या और एक समाधान गांधी।
मैं गांधीवादी नहीं हूं क्योंकि गांधी के ऐसे बहुत से सिद्धांत हैं जो जिन्हे भूमंडलीकरण के दौर में नए सिरे से देखे जा रहे हैं और यह समय की मांग  भी है। लेकिन स्व के नियंत्रण का जो तरीका या शत्रु या प्रतिद्वंदी के प्रति भी अहिंसा और प्रेम का भाव जो गांधी जी बताते हैं मैं इसका कायल हूं। आत्मशुद्धि आत्मनियंत्रण और शाकाहार जसी अवधारणा वर्तमान हमें काफी कुछ दे सकती हैं। गांधी जब न्यासिता या श्रम की व्याख्या करते हैं तो वह मार्क्‍स के करीब आ जाते हैं लेकिन कहीं भी वह हिंसक क्रांति की बात नहीं करते। शायद इसी लिए वह सहस्त्राब्दी के महापुरुष कहे जा रहे हैं।


मैं जिस पेशे से हूं उसमें रोज सुबह मन में एक गांधी को लेकर उठता हूं, दिन भर कई जहग धक्के खाता हूं, शाम को खबरें करता हूं (लेकिन गांधी को खबरों से दूर ही रखता हूं ) रात को मैं और मेरे मन का गांधी खाना खाकर सो जाता है। अगले दिन फिर कई गांधी, आजादी से पहले का गांधी, नेहरु का गांधी, इंदिरा का गांधी, सोनिया-मनमोहन का गांधी, कम्युनिस्टों और सोसलिस्टों का गांधी, मुन्नाभाई- सर्किट का गांधी और रात आते-आते फिर मैं और मेरा गाँधी.

(अभिनव उपाध्याय )

Monday, October 26, 2009

गाँधी और मै--अमरेन्द्र नाथ त्रिपाठी



किसी सोच का दायरा इतना बड़ा हो सकता है ; यह गांधी जी पर सोचते हुए महसूस होता है क्योंकि गाँधी जी पर सोचना खुद पर सोचना है परिवेश पर सोचना है, इतिहास पर सोचना है, भविष्य पर सोचना है, संस्कृति पर सोचना है.....और इस सबके निराशा, उलझाव, विसंगति, प्रभृति स्थितियों को अपनी संजीवनी शक्ति से निष्क्रिय करती एक अभय वास्तविकता हमारी प्रेरणा बनाती है--"गाँधी जी मर सकते हैं लेकिन विचार नहीं."


"इस नोट पर किनका चेहरा छपा है..!" गाँधी की तरफ ध्यानाकर्षण का यही पहला समय था. बचपन की किसी लोरी में गाँधी जी कभी नहीं आये. हाँ, 'भकाऊं' के नाम के डर से बच्चे सुलाए जाते थे. अच्छा ही है सुलाने के लिए गाँधी जी नहीं बुलाये जाते.आगे चलकर वर्ष में आने वाले तीन राष्ट्रिय पर्वों में 'महात्मा गाँधी की जय' ने बाल मन को गाँधी जी के और नज़दीक ला दिया था. मौसमों की तरह वर्ष भी बीतने लगे. आयु ११ वर्ष की थी और न भुलाया जा सकने वाला 'मंदिर-मस्जिद' विवाद का सन बानबे का समय. लोग घर-गांव, चौराहे, बाजार आदि जगहों पर 'हिन्दू-मुस्लिम' समस्या पर बतियाते थे. कभी-कभी कान में आवाज पड़ती-"मेन गलती तो गाँधी जी किहिन...". तब समझ में नहीं आता था, आखिर ऐसी क्या गलती कर डाली थी बापू ने? बंटवारा, हिन्दू, मुस्लिम, गाँधी, मंदिर, मस्जिद...विकट पहेली सुलझ नहीं पाती थी. मेरा तो बचपना था और पहेली बुझाने वाले लोग तो बड़े लोग थे.


"गाँधी जी के बारे में मेरे बचपन के साथी को एक बात पता चली. बात थी--'कोई एक गाल पर तमाचा दे तो उसके सामने दूसरा गाल भी कर दो.' अलाव के चारों ओर बैठे लोगों में से सरपंच के सामने साथी ने यह बात कही. लुल्लुर सरपंच जो कि तेल-पिलाई लाठी लेकर चलते थे, चालू हो गए--"सब फालतू की बात है. इतना तेज रसीदों कि फिर हिम्मत ना कर सके मारने की. ज्यादा गाँधी की मत सुनों बेटा. डरपोक बनाते हैं, गाँधी..!" लुल्लुर सरपंच मोंछ ऐंठ कर चालू थे--''जो ताको कांटा बोए, ताहि बोउ तू भाला / वो भी साला क्या जाने पड़ा किसी के पाला.//"




मेरी हिम्मत ना थी, सरपंच साहब से कुछ पूँछता. हाँ; सरपंच साहब अभी कुछ महीने पहले दिवंगत हुए हैं और 'शक्तिमेव जयते' में विश्वास रखने वाले लुल्लुर इतने शक्तिहीन हो गए थे कि अपनी आँखों के सामने ही अपने लड़कों को मार-काट करते देखकर रोक ना सके. फौजदारी होती रही और घर की इज्जत बनिए की आढ़त पर जाकर बिकती रही. पोते-पोती सही से पढ़ ना सके. काश सरपंच साहब अपने बच्चों को (जिन्हें वे गुरुर से थानेदार और जिलेदार नाम से बुलाते थे) धैर्य,त्याग, समता, प्रेम, सत्य जैसे मूल्यों को सिखाते..सत्यमेव जयते बताते.


यह घटना व्यापक तौर पर देश के लिए भी सत्य साबित हो रही है, जहाँ थानेदार और जिलेदार, मजहब, क्षेत्र, जाति, आदि के रूप में देख सकते हैं.


अंतिम बात..एक मुहाविरे कि. बहुत लोग कहते हैं--"मजबूरी का नाम महात्मा गाँधी". क्या मजबूरी थी...शायद लोग सोचते नहीं. यह गलत कहावत जाने कैसे इतनी व्यापक हो गयी और लोगों ने इसकी सच्चाई नहीं परखी. जिस सत्य का आग्रह गाँधी जी करते रहे, हमने इस आग्रह को इतना तोड़ डाला. जिस सत्य को अंग्रेजों ने देखा, उसको भी ना देख सके हम. लार्ड माउन्टबेटन ने गाँधी के तप और सत्य को देखा था. और नोआखाली, बंगाल में गाँधी जी के खिलाफ लड़ने की शक्ति (जो कि कदापि मजबूरी नहीं थी) को सलाम करते हुए माउन्टबेटन ने कहा था---"पंजाब में पचास हजार सैनिक सांप्रदायिक हिंसा को नहीं रोक सके और बंगाल में हमारी फौज में केवल एक ही आदमी है और वहां कोई हिंसा नहीं हुई. एक सेना अधिकारी और प्रशासक के रूप में इस व्यक्ति (गाँधी) की सेवा को मै सलाम करता हूँ.."
हिंदी के अतिरिक्त किसी और भाषा में शायद बापू पर ऐसी कहावत (मजबूरी का नाम...) नहीं बनी होगी. ऐसी कहावत हिंदी में है जिसके प्रचार-प्रसार के लिए गाँधी जी ने आपादमस्तक परिश्रम किया था.



मित्रों ! सीमायें किसी की भी हो सकती हैं, परन्तु हमें सीमाओं को सीमा कहना चाहिए ना कि शक्तियों को. कमियों को कमियां कहना चाहिए ना कि अच्छाइयों को. जीवन में यह सदाग्रह बना रहना चाहिए






कि "व्यक्ति को , विकार की तरह पढ़ना , जीवन का अशुद्ध पाठ है.."(कवि कुंवर नारायण के शब्दों में).


अमरेंद्र नाथ त्रिपाठी 




















Friday, October 23, 2009

नयी पौध की नीम के पेड़ पर अर्द्धनारीश्वर चर्चा

अंतरतम से और सर्वत्र से संवाद अल्केमिस्ट में वृद्ध पाउलो कोएलो भी चाहते हैं और जवान चेतन भगत भी. one night @call centre में चेतन भगत inner call की बात करते हैं. सरल इंग्लिश में लिखी गयी किताब, प्रवाहमयी. पर ९०% किताब, व्यक्ति के भौतिक विलासों पर है तो अचानक अंतिम १०% भाग में लेखक को inner call की याद आ जाती है. शायद लेखक कहना चाहता है, कि इस inner call को ignore करके कुछ भी संभव नहीं है, कुछ भी हासिल नहीं किया जा सकता. पर ये इतना अचानक घटता है उपन्यास में कि नाटकीय लगने लगता है. वैसे विषयवस्तु की दृष्टि से पुरी किताब साधारण लग रही होती है कि वह नाटकीय मोड़ आता है और पढ़ना निष्फल नहीं जाता.  

राही मासूम रजा की 'नीम का पेड़' और नागार्जुन की 'नयी पौध' भी पढ़ी. 'नयी पौध' स्वतंत्रता पश्चात, स्वाभाविक परिवर्तनों का बिगुल बजाते युवाओं पर देसी ढंग से प्रकाश डालता है, नागार्जुन की अपनी खास शैली, जबरदस्त चमत्कृत करती है और खासा रोचक है. पर यही 'नयी पौध' रजा के 'नीम के पेड़' से उसकी छांह छीन लेती है, जबकि आजादी के कुछ दशक हो चुके हैं. रजा की प्रशंसा करूँगा कि महज कुछ पन्नों में उन्होंने बेहद कसी हुई कहानी कहते हुए नीम के पेड़ का दर्द बयां कर दिया है. मुझे मौका मिला 'विष्णु प्रभाकर' जी की रचना 'अर्द्धनारीश्वर' पढ़ने का. या तो मै अल्पवयस्क हूँ या निश्चित ही यथार्थ अनुभव नहीं है, इस उपन्यास के 'मूल प्रश्न ' का. अथवा इस पर मेरे विचार यों है--- स्त्री-पुरुष सम्बन्ध तर्क आधारित नहीं हो सकते, क्योंकि ये प्रतिक्षण शारीरिक व मानसिक दोनों स्तरों पर घटते-बढ़ते रहते हैं. मुझे नहीं लगता की इस सम्बन्ध को कोई निश्चित सिद्धांत दिया जा सकता है. इस आकर्षक खलील जिब्रान की टिप्पणी को भी नहीं कि --''स्त्री-पुरुष एक दुसरे का प्याला भर सकते हैं पर पीना अपने-अपने प्याले से ही चाहिए.''  

मुझे लगता है इस धरा का प्रत्येक मनुष्य, विभिन्न आयामों में अलग-अलग होता है, उसी तरह (स्वाभाविक ही है) प्रत्येक 'स्त्री-पुरुष सम्बन्ध' भी अपनी तरह का अकेला ही होता है. तर्क की गुंजायश व्यक्तिगत व उभयगत या पारस्परिक स्तर पर ही है, व्यापक स्तर पर नहीं. आदरणीय लेखक ने फ्रायड के मनोविज्ञान व भारत की प्राचीनतम विवाह-संस्था के आदर्शों में समन्वय, आज के जटिलतम समय में करने की कोशिश की है. वैसे यह उपन्यास बलात्कार के मनोविज्ञान से आधार पाता है, पर इस सन्दर्भ से बारंबार 'स्त्री-पुरुष संबंधों' पर ही टीका हुई है. अंत तक जाते-जाते, बल्कि माफ़ करिए मध्याह्न से ही उपन्यास के तर्क निरे काल्पनिक लगने लगते हैं.

(श्रीश पाठक 'प्रखर ')

Friday, October 16, 2009

"सर्वत्र" से संवाद



चित्र साभार:गूगल
अल्केमिस्ट की कहानी कुल पांच से छः पेज में आ सकती है. पर कहानी कहना ही उद्देश्य नहीं लेखक का. लेखक को पाठक से आत्मिक संवाद करना है. ALCHEMIST--पूरी पुस्तक बोल के पढ़ा, क्योंकि पुस्तक बिलकुल पोएटिक थी. एलन क्लर्क ने क्या उम्दा इंग्लिश अनुवाद किया है, मूल पुस्तक पुर्तगीज में है, कुल ६२ भाषाओँ में अनुवाद हुए है इसके--गिनीज बुक ऑफ़ वर्ल्ड रिकार्ड्स में शामिल...हाँ तो बोल के पढ़ा एक-एक शब्द. जाने- अनजाने कोई गाढ़ी बात निकल के आ जाती थी..और विचारों के ये सुन्दर मोती हर एक या दो पैराग्राफ में ही मिलते रहते हैं.

एसेंस है अल्केमिस्ट का; कि-- "लक्ष्य को प्राप्त करने की प्रक्रिया, लक्ष्य से ज्यादा महत्पूर्ण है..(कर्मण्ये वाधिकारस्ते.....); क्योंकि मंजिल तक पहुंचते-पहुंचते आप वो नहीं रह जाते हैं जो रास्ते की शुरूआत में होते हो; तो फिर लक्ष्य बौना हो जाता है, आप बड़े हो जाते हो..." एक गहरा रूपांतरण घट चूका होता है.

अल्केमिस्ट इशारा करती है कि 'जड़, चेतन से वैसे भिन्न नहीं है, जैसे आज समझा जाता है, प्रकृति तो जड़ कत्तई नहीं है. व्यक्ति को "सर्वत्र" से संवाद करना सीखना चाहिए. प्रकृति से भी और अपने अंतरतम से भी. मुझे अल्केमिस्ट बेहद पसंद आयी. शायद हर उत्साही के पास यह पुस्तक होनी चाहिए. पाउलो कोएलो की टिपिकल शैली बहुत भायी, मुझे. वैसे कुछ प्रतीक, बिम्ब ले रखे हैं प्रचलित अंधविश्वासों से पर लेखक के लिए महज यह जरिए रहा है.

ये किताब पढ़कर, मै सोचने लगा कि पुस्तकें मानव जीवन में कितनी बड़ी अविष्कार हैं. किसी खास चिंतन में कोई व्यक्ति जाने कितने उतार-चढाव के बाद किसी अनमोल बिंदु पर पहुंचता है, उन्हें पढ़कर हम सहसा वहां पहुच जाते हैं, अपनी-अपनी प्रज्ञा से हम विचार करते हैं और उस दिशा में व्यक्तिगत प्रगति करते हैं. मुझे अर्जेन्टिनी लेखक बोर्खेज के शब्द याद आ रहे हैं.."पुस्तकें, सुख कैसे देती हैं, मै समझा नहीं सकता, पर मै कृतज्ञ हूँ, इस विनम्र चमत्कार के लिए.."

(श्रीश पाठक 'प्रखर ')

Tuesday, October 13, 2009

इंडिया: अ कंट्री ऑफ़ एमैच्योर ईगो- वी. इस. नायपॉल




अभी कुछ देर पहले ख़त्म की, वी. यस. नायपाल की 'A Wounded Civilization'.  मानता हूँ, कुछ देर बाद यह पुस्तक मेरे लिए सहनीय नहीं रही. किसी देश को महज कुछ यात्राओं से कैसे जाना जा सकता है..? सर नायपाल ने कुछ मनपसंद किताबें चुनीं भारतीय लेखकों की, जिनमे उन्हें दोमुहें तर्क मिले; गांधी का व्यक्तिगत जीवन व सार्वजनिक जीवन चुना ( मानो, गांधी की गलतियाँ, भारत की गलतियाँ हों...) और कुछ विशेष मानक प्रश्न, टैक्सी-ड्राइवर, अनपढ़ गांव के सरपंच, स्वयं-घोषित कुछ आधुनिक औरतों से पूछ कर नायपाल ने भारत को एक आहत सभ्यता कह दिया.

वैसे पुस्तक १९७५-७६ में लिखी गयी. भारत की आलोचना का इससे सुन्दर समय क्या होगा--क्योंकि आपातकाल ही उन्हें भारत के सम्पूर्ण जटिल-सरल कलेवर की चाभी प्रतीत हुई. कम से कम गांधी का प्रभाव निर्णायक रूप से असफल रहा( कमोबेश राजनीतिक रूप में), यह उन दो-तीन सालों में संस्थात्मक-औपचारिक तरह से गोचर हो रहा था. जैसे नायपाल के भेष में चर्चिल ने अट्टहास किया हो, जो स्तब्ध हो, भारत में  democracy  की स्थापना पर खिल्ली उड़कर कि ये अभी टूटा नहीं , बटां नहीं, उधर की संस्थाओं से अपने मूलभूत अभिसमयों को भारतीय कैसे सींच पाने में सक्षम हो पा रहे थे आखिर...? आपातकाल ने मानो उसे मौका दिया हो अपना बड़प्पन साबित करने का...!

नायपाल ने भारत का वही इतिहास सोखा है जो त्रिनिदाद में पश्चिम ने उन्हें रटाया है. उनके लिए इतिहास, history  है, जो हेरोडोटस से शुरू होता है. पश्चमी पानी में पनपे नायपाल भारत की ग्रामीण संस्कृति में महज गन्दगी ही निरख पाते हैं....पश्चिम की तराजू भी ले ली और बाँट भी वहीं से उठा लाये, और दूसरे पलड़े पर भारत के कछुए को तौल रहे हैं. उसकी मजबूत खाल पर खड़े हैं, जब ये नहीं टूट रही है तो इसे भारतीय कर्मकांड की मजबूत संकीर्ण परंपरा बता रहे हैं. भारत की विनम्रता, उसकी सकुचाहट को उसकी ऐतिहासिक कमजोरी बता दे रहे हैं. गांधी जी की आलोचना कर, कद तो बढ़ जायेगा पर उस कद की उम्र घट जायेगी. नायपाल लिखते हैं कि भारत विचारधारा से शून्य है. नायपाल उसी भट्टी के भाड़ हैं, जो असल में विचारधारा की शूरूआत, यूरोप के रेनेसां से मानता है. कहते हैं कि भारत एक राष्ट्र नहीं है..मुझे बताइए कि कितने ऐसे देशों को आप नेशन कहेंगे,जो एकदम से उन्ही वेस्टफालिया के सिद्धांतों के समरूप हों, और ये अनिवार्यतः जरूरी ही क्यों है..?

आप भारत में भारत खोजने आये थे कि यूरोप..? चीनी खाने और गन्ना बोकर, चूसने में अंतर है, नायपाल जी. ५० साल भी नहीं हुए थे तबतक (१९७५-७६) भारत को आजाद हुए और आप, भारत की मौलिक विकास-अविकास यात्रा की तुलना, पश्चिम के उन मानकों से करने लगे, जिन्हें उपजने में पश्चिम में सैकड़ों साल, बर्बर क्रांतियाँ, दमन आदि हुए. प्रत्येक देश की अलग प्रकृति, अलग साधन व अलग तरह के लक्ष्य होते हैं और भारत यदि कमोबेश शांतिपूर्ण ढंग से विकसित होने में समय ले रहा है तो आपको आपत्ति क्यूं है...? आप कहते है; भारत के व्यक्ति में "immature ego"  है. तो क्या यह डी.एन.ए. में है...?

खैर आपकी इस बात से आंशिक तौर पर सहमत हूँ, कि नक्सलवाद एक बौद्धिक त्रासदी थी और इसने भारत की एक पीढ़ी को लील लिया; पर यह भी हमारे चेतना का एक अंग है..इसका अनुभव भी एक सामाजिक परिप्रेक्ष्य देता है. नायपाल जी मै समझता हूँ, भारत जैसे देशों को तर्कों से खारिज कर देने का भी एक सुख है, जो आपने इधर की कड़ी, उधर से जोड़कर ले लिया. मै सोचता हूँ कि किसी भी देश की सभ्यता को फूहड़, संकीर्ण कहना और कतिपय तर्कों व संयोगों से सिद्ध कर देना ही कौन सी सभ्यता है...?

खैर ऐसी पुस्तकें एक बार कम से कम आइनें की तरह काम तो करती हैं भले ही आइनें का अपना एक गन्दा गाढा  रंग क्यों ना हो...!

(श्रीश पाठक 'प्रखर ' )

Friday, October 2, 2009

गाँधी और मै....श्रीश पाठक 'प्रखर'

गाँधी जी जैसा रीयल परसन अपने जन्मदिन पर आपको निष्क्रिय कैसे रहने दे सकता है..? जितना पढ़्ता जाता हूँ गाँधी जी को उतना ही प्रभावित होता जाता हूँ. गाँधी और मै. मेरे लिये गाँधी जी सम्भवत: सबसे पहले सामने आये दो माध्यमों से, पहला -रूपये की नोट से, दूसरा एक लोकप्रिय भजन- रघुपति राघव राजाराम...फिर पता चला इन्हें बापू भी कहते हैं; मोहन भी, इन्होने आज़ादी दिलवाई और सत्य, अहिंसा का पाठ पढ़ाया. बापू की लाठी और चश्मा एक बिम्ब बनाते रहे. इसमे चरखा बाद में जुड़ गया.पहले जाना कि यह भी एक महापुरूष है, बाकि कई महापुरुषों की तरह. और तो ये उनमे कमजोर ही दिखते हैं. सदा सच बोलते हैं और हाँ पढ़ाई में कोई तीस मारखां नहीं थे. ये बात बहुत राहत पहुँचाती थी. पहला महापुरुष जो संकोची था, अध्ययन में सामान्य था. मतलब ये कि --बचपन में सोचता था --ओह तो, महापुरुष बना जा सकता है, कोई राम या कृष्णजी की तरह, पूत के पांव पालने में ही नहीं दिखाने हैं. फिर गाँधी जी का 'हरिश्चंद्र नाटक' वाला प्रकरण और फिर उनकी आत्मकथा का पढ़ना.. मोहनदास का झूठ बोलना, पिताजी से पत्र लिखकर क्षमा याचना करना. पिता-पुत्र की आँखों से झर-झर मोतियों का झरना. ...प्रसंग अनगिन जाने फिर तो..पर एक खास बात होती गयी. गाँधी जी को जानो तो वो भीतर उतरते जाते हैं, उतने ही प्राप्य, tangible हो जाते हैं.

किशोरावस्था में गाँधी जी का मतलब ये हो गया था-'-कोई एक गाल पे झापड़ दे तो दूसरा गाल भी आगे कर दो...
गांधीजी कायर थे और जाने क्या-क्या सुना, उन लोगों के मुँह से जिन्होंने कभी नवजीवन प्रकाशन से छपने वाली २० रूपये वाली बापू की ''सत्य के प्रयोग'' तक नहीं पढ़ी.

आज गाँधी एक सॉफ्टवेयर जैसे लगते हैं, जिसमे जैसे जिन्दगी की हर फाईल खुल जाती हो, सारे वाद-विमर्शों की वीडियो चल जाती हो..हम गाँधी को आजमाते जाते हैं और उनकी प्रासंगिकता पर बहस करते जाते हैं. महामना गाँधी जी की सबसे बड़ी खासियत यही थी कि उन्होने सबके सामने एक आदर्श रखा, एक ऐसा आदर्श जो सबके सामने ही प्रयोग करते हुए, गलतियाँ सुधारते हुए, व्रत-उपवास, अनशन, यात्रा आदि-आदि करते हुए रचा गया, एक ऐसा आदर्श जो सामान्य मानव मन के लिए अनुकरणीय था.

गाँधी ने सबको, सबके भीतर के गाँधी से मिलवाने की मुहिम चलायी और सफल रहे. गाँधी पर विचार करते हुए किसी प्रकार का एकेडेमिक तनाव नहीं होता, क्योंकि गाँधी केवल किताबों में नहीं हैं, भाषणों में ही नहीं हैं या फिर विभिन्न आलेखों में ही नहीं हैं. हम गाँधी को अपने किचेन में भी पाते हैं और  अपने बाथरूम में भी गाँधी हमें हाइजीन का पाठ पढाते मिल जाते हैं. दिन की शुरुआत में गाँधी प्रार्थना की शक्ति समझा रहे होते हैं, तो रात में 'आत्म-निरीक्षण' की आदत डलवा रहे होते हैं. हो सकता है, गाँधी आपसे नमक का कानून तोड़ने के लिए कह रहे हों और पेट दुखने पर मिटटी का लेप भी स्वयं ही लगा रहे हों. गाँधी, इरविन से भी बात कर लेते हैं, और आपके दादा, दादी, पापा, मम्मी, भाई, बहन से भी बात कर लेते हैं. गाँधी, वकील को भी समझा रहे होते हैं, अध्यापक को भी पढ़ा रहे होते हैं और डॉक्टर को भी हिदायतें दे रहे होते हैं. गाँधी हर जगह मुस्कुरा रहे होते हैं और अपनी स्वीकार्यता सरलता से बना लेते हैं.

गाँधी वहां भी धैर्यवान और शांत हैं, जहाँ वे प्रयोग कर रहे हैं या गलतियाँ कर रहे हैं. सब आपके सामने है. गाँधी एक साथ उत्कट हैं और विनम्र हैं. गाँधी लैटिन भाषा का एक्जाम देते हैं, आंग्लभाषा में बैरिस्टरी करते हैं, पर ठीक सौ साल पहले  'हिंद स्वराज' लिखते हैं तो गुजराती  में लिखते हैं. और हाँ, 'हिंद स्वराज' में कोई भाषण या कठिन निबंध नहीं लिखते वरन सामान्य जनों के प्रश्नों का सरल व व्यापक सम्पादकीय उत्तर दे रहे होते हैं.

गाँधी एक साथ संकोची व परम निडर हैं. वो मान लेते हैं कि वे डरपोक हैं, फिरोजशाह मेहता की तरह जिरह नहीं कर सकते, पर अफ्रीका में अपनी पगड़ी नहीं उतारते, मोहनदास . मोहन से महात्मा बनने की यात्रा एक क्रमिक सुधारयात्रा  है, साधारण के असाधारण बन जाने की महागाथा है, जिसका साक्षी हिन्दुस्तान का आख़िरी व्यक्ति है.

मुझे सबसे ज्यादा पसंद है, गाँधी जी का प्रयोगधर्मी होना. जीवन-व्यापर में ऐसी कोई चीज नहीं जिस पर गाँधी प्रयोग करते ना दिख जाते हों. वो आपको मालिश करना सिखा सकते है, बाल काटना बता सकते हैं. अंतःकरण शुद्धि की विधियां बता सकते हैं और तिलहन की फायदेमंद खेती कैसे करें, यह भी बता सकते हैं. गाँधी बच्चों से ठिठोली कर सकते हैं. नोआखाली में उन्माद से जूझ सकते हैं. गाँधी आपको सरल ह्रदय वाला बना सकते हैं, जिसमे जरा भी घमंड व कर्त्ताभाव ना हो, जब वो कहते है कि सबसे गरीब व कमजोर व्यक्ति का स्मरण करो और सोचो कि तुम्हारे इस कदम से उसे क्या फायदा होने वाला है. आपको अपनी लघुता और उपयोगिता दोनों का पता तुंरत ही लगता है.

महामना गाँधी अपना सारा मोह छोड़ सकते हैं. चाहे वो खाने का हो, चाहे वो सेक्स का हो, चाहे वो कपड़ों का हो ...आदि-आदि. गाँधी, शिक्षा के लिए अपना घर बार छोड़ सकते हैं, अपना समाज छोड़ सकते हैं. गाँधी पहला गिरमिटिया बन सकते हैं. गाँधी बाइबिल पढ़ सकते हैं और गीता भी, कुरान भी और जेंद अवेस्ता भी. उनके लिए कुछ भी अनछुआ  नहीं है. वो सबके हैं और सब उनके. गाँधी के लिए गैर तो अंग्रेज भी नहीं. उन्हें वेस्ट कल्चर से नहीं, अंधी आधुनिकता से ऐतराज था. उन्हें मशीन से नहीं पर मैकेनाइजेशन से चिढ़ थी.




......ग्लेशियर पिघलने लगे हैं, धरती गरम हो गयी है, मानवी उन्माद नए चरम पर हैं, तो अब कब सुनोगे बापू को.....बोलो...?

गाँधी थकते नहीं, चलते जाते हैं. जीवन-पर्यंत चलते जाते हैं. भारत का पहला mass-mobilisation का श्रेय उन्हें प्राप्त है. पहले democratic leader हैं वो क्योकि उनकी अपील common man के लिए थी. उनका उपवास, गरीब का भी उपवास था और टाटा-बिड़ला का भी उपवास था. हम गाँधी को प्यार करने लग जाते हैं क्योकि वो अपनी गलतियाँ बताते हुए, कमियां जग-जाहिर करते हुए आगे, एकदम आगे बढ़ते जाते हैं. गाँधी उन्ही क्षणों में सचेत हैं, कि उनको स्वयं का अन्धानुकरण नहीं करवाना है. गांधीवाद जैसी कोई चीज नहीं पनपने देनी है. उन्हें चमत्कार नहीं बनना है..वे आचरण में श्रम की प्रतिष्ठा कर जाते हैं. भारतेंदु हरिश्चंद्र ने  जिन भारतीयों को धीमी रेलगाड़ी का डिब्बा कहा है, उनके सामने युगपुरुष गाँधी एक नियमित,अनुशाषित, सयंमित व सक्रिय दिनचर्या का आदर्श रखते हैं.

(चित्र साभार: गूगल इमेज )      
गाँधी हर पत्र का उत्तर लिखना नहीं भूलते, कागजों के रद्दी से आलपिनों का चुनना नहीं भूलते. अपने साप्ताहिक, मासिक पत्रों में किसी भी तरह के मुद्दे को छेड़ना नहीं भूलते. गाँधी नहीं भूलते कुछ भी पर हम भूल जाते हैं सब कुछ. आखिर हमने गाँधी को सिम्बल बना लिया है. टाँक लिया है अपने राष्ट्रिय जीवन पर. गांधीवाद के बाकायदा संसथान बना लिए हैं, जहाँ से खादी तैयार होती है और संसद में शोरगुल मचाती है कि नोट की गड्डी अन्दर कैसे आयी, कौन लाया, किसके लिए..लाया....?...? उन संस्थानों में चरखा चलता रहता है, खादी की नयी खेप आती रहती  है, शोरगुल मचाने के लिए...

गाँधी अनवरत जिन्दा रहेंगे, उनकी प्रार्थना अमर रहेगी, किसी भ्रमित की गोली उन्हें नहीं रोक सकेगी कभी भी, क्योंकि उन्होने अपनी जगह आसमान या धरती पर नहीं बनाई थी; दीवारों या नोटों पर नहीं बनाई थी, उन्होने बनाई थी अपनी जगह समाज के अंतिम आदमी के दिल में..तो वो सदा-सर्वदा मुस्कुराते रहेंगे, केमिकल लोचा करते रहेंगे..उनकी प्रासंगिकता की बार-बार होने वाली बहस भी बेमानी है, क्योंकि वो जीवन-व्यापार से कभी अनुपस्थित ही नहीं होते...हम भ्रमित, श्रांत उन्हें खोज नहीं पाते और बहस करने लगते हैं प्रासंगिकता की..
(श्रीश 'प्रखर ' )    


..देर नहीं करनी चाहिए...अब हमें अपने भीतर के गाँधी को पुकारना चाहिए और महामना की आवाज को सुनना चाहिए....ग्लेशियर पिघलने लगे हैं, धरती गरम हो गयी है, मानवी उन्माद नए चरम पर हैं, तो अब कब सुनोगे बापू को.....बोलो...?