(यह आलेख रोहित भैया ने सदाग्रह के लिए लिखा था !)
गांधी से मेरा पहला परिचय गांव की पाठशाला
में किसी पंद्रह अगस्त को हुआ होगा। वहीं हजूरे मास्टर साहब पंद्रह अगस्त अमर रहे.,
महात्मा गांधी अमर रहे. का नारा लगाते हुए स्कूल से पूरे गांव में
प्रभात फेरी लगवाते रहे। स्कूल में ही गांधी की फोटी भी देखी थी। फिर कापियों पर
गांधी, नेहरू, सुभाष, भगत सिंह, चंद्रशेखर
आजाद की तस्वीरों में हमसे पहचान कराई जाती थी। अब तो इनकी जगह ऐश, विपाशा,
मल्लिका सेरावत आदि की तस्वीरें कापियों के कवर पेज पर चमकती हैं।
गांधी के प्रति जो श्रद्धा भाव उपजा वह हजूरे मास्टर का रोपा हुआ था। जसे-जसे उम्र
बढ़ी गांधी के प्रति तर्क-वितर्क मन में उठने लगे और जब-तब सार्वजनिक भी होने लगे।
बालमन यह मान लिया था दे दी हमें आजादी बिना खड्ग बिना ढाल, साबरमती
के संत तूने कर दिया कमाल। इस स्वीकारोक्ति को खारिज होने में विलम्ब नहीं लगा।
माध्यमिक और फिर उच्च शिक्षा केंदों में गांधी को एक कमजोर और डरपोक तथा
क्रांतिकारियों की उपेक्षा करने वाले नेता के रूप में जाना। तब तक जो भी मानस
गांधी के बारे में बना, वह सब कुछ सुनी-सुनाई बातों और बहसों का नतीजा
था। वैसे नौजवान गांधी को स्वीकार लेते तो शायद गांधी के सपनों का भारत बन गया
होता। गांधी जहां बुजुर्गो के पाले में थे, वहीं क्रांतिकारी
भगत सिंह आदि नौजवानों को अपने लगते। नया खून खौलता भी अधिक है। यह धारणा
गहरे तक पैठ गई थी कि गांधी के कारण आजादी विलम्ब से मिली। सुभाषचंद्र बोस का देश
निकाला हुआ। भगत सिंह को फांसी हो गई और तो और देश का विभाजन हो गया। इस धारणा के
रहते हुए जसे को तैसा वाला आग्रह प्रबल होता गया। कोई अहिंसा की बात करता तो लगता
गांधी की बात कर रहा है। और गांधी के प्रति रची-बसी श्रद्धा गायब होने लगी। सत्य
के प्रति गांधी के आग्रह को देखते हुए लगता अपने से गांधी का नहीं निभ सकता।
रोहित भैया |
मैं सत्य बोलने से घबराता नहीं मगर आज भी यह सोचकर कांप जाता हूं कि
कहीं मैं सत्य न बोलने लगूं। गोरखपुर विश्वविद्यालय में अध्ययन के दौरान कभी-कभी
अजीबो गरीब स्थिति पैदा हो जाती। क्रांतिकारी विचारों को लेकर फड़क रही भुजाओं के
साब जब परिसर में प्रवेश किया थी। तो गाहे-बगाहे वाद-विवाद प्रतियोगिता या भाषण
में प्रतिभाग लेता तो गांधी के पक्ष में बोलना पड़ जाता था। अहिंसा के विपक्ष में
बोलने जाता और किसी साथी (प्रतियोगी/प्रतिद्वंद्वी) के आग्रह उकसाने पर पक्ष में
बोल देता। घुप्पल में प्रतियोगिता भी जीत लेता। फिर मुझे लगता कि जिन तर्को
का प्रस्तुत कर मैं जीत गया क्या उन तर्को में दम भी है या मेरे लिए या फौरी तौर
पर ही लाभदायी है। पढ़ा तब भी नहीं गांधी को। आज भी स्वीकारने में हर्ज नहीं कि
पत्रकार गांधी के अलावा मैंने गांधी को पढ़ा नहीं। उनकी आत्मकथा भी नहीं। पहला
गिरमिटिया (गिरिराज किशोर), मीरा और महात्मा (सुधीर कक्कड़) भी नहीं। फिर भी
अब ऐसा लगता है कि गांधी अपने हैं और मैं भी उनके बारे में बहुत कुछ जानता हूं।
कहीं-कहीं गांधी मेरा रास्ता साफ करते दिखते हैं तो कहीं एक बहुत बड़े अवरोधक
दिखते हैं। कुछ संग्रह की सोचता तो गांधी लाठी लेकर सिर पर सवार दिखते। फिर भी
उनके बारे में सोचता हूं, क्योंकि गांधी एक ऐसे विषय हैं कि उस पर आम आदमी
हो या खास कुछ न कुछ या बहुत कुछ कहने की क्षमता रखता है। गांधी के प्रशंसकों से
कम संख्या उनके आलोचकों की नहीं है। नई पीढ़ी गांधी को स्वीकारने में हिचकती थी
अभी बीसवीं सदी तक। क्योंकि तब गांधीवाद फैशन नहीं था। जबसे अब गांधीगिरी एक फैशन
है। फैशन अस्थायी होता है। इसलिए संजय दत्त वाली गांधीगिरी अब उतार पर है। जैसा कि
मैं पहले ही कह चुका हूं कि गांधीवादी होने के खतरे (वंचना) से मैं घबरा जाता हूं।
फिर भी संचार का विद्यार्थी होने के कारण गांधी मेरे लिए जिज्ञासा के विषय जरूर
हैं।
यह सवाल अब भी मेरे जेहन में कौंधता है कि गांधी भारत में
साम्राज्यवादी सत्ता की जगह लोकतंत्र की स्थापना के लिए संघर्ष कर रहे थे। बावजूद
इसके वे किसी अन्य के विचार का स्वागत करते नहीं दिखते। मैं नेहरू, भगत
सिंह, सुभाषचंद्र बोस, चौरीचौरा कांड आदि मुद्दों को छोड़ भी देता हूं
तो भी लगता है कि गांधी अपने विचारों को थोपते थे। मेरा मानना है कि व्यक्ति सबसे
पहले विचारों में तानाशाह होता है। गांधी को अपने विचार ही स्वीकार्य थे। और दूसरे
के विचारों पर पाबंदी वह सख्ती से लगाते थे। तभी तो उन्होंने हरिजन के 24 सितंबर 1938
के अंक में अपने साप्ताहिकों के बारे में लिखा, "ये
समाचार पत्र नहीं है, विचार पत्र है और इनमें विचार एक ही व्यक्ति के
जाहिर किए जाते हैं, इसलिए जब तक मैं जिंदा हूं, महादेव
या प्यारेलाल इनमें अपने मन की बात नहीं लिखेंगे।" अब विचारों पर इस तरह
अंकुश लगाने वाले गांधी कितने लोकतांत्रिक थे? मेरे लिए अब भी
रहस्य है।
गांधी जी कहते थे कि वे कभी क्षुब्ध होकर नहीं लिखते। लोगों की
भावनाओं को उत्तेजित करने के लिए भी नहीं लिखते। वे हफ्ते भर शब्दों का चयन करते
और अभिव्यक्ति में अनुशासित रहते। मैने भी ‘हफ्ते की बात’
लिखी। मैं सप्ताह क्या सात मिनट भी शब्दों के चयन के लिए नहीं
देता। दैनिक जागरण के अपने कालम में अक्सर मैंने क्षुब्ध होकर ही लिखा। लोगों की
भावनाओं को उत्तेजित करने के मकसद से लिखा। गांधी के इस बात से अपने को कहीं और
कभी भी सहमत नहीं कर सका। मगर गांधी को बीसवीं सदी का सबसे बड़ा कम्यूनिकेटर मानने
वालों में खुद को भी रखता हूं। गांधी मुझे डटे रहने के लिए जहां उकसाते (प्रेरित)
रहते हैं, वहीं ग्राम स्वराज का आकर्षण मेरे मन में निरंतर
बढ़ता ही जा रहा है। गांव का शहर पर बढ़ रही निर्भरता मुझे बेचैन करती है। सोचता
हूं गांधी क्यों नहीं मनमोहन, मोंटेक सिंह के सपने में आते हैं और कान पकड़कर
कहते हैं कि इस देश की क्या हालत बना डाली है। आम आदमी को सत्ता से कितना दूर कर
दिया है। सोचता हूं मुझे क्यों तंग करते हैं गांधी? आखिर देश में ‘गांधियों’
की कमी तो नहीं। अभी तो गांधी की चाहत (नेहरू) वाला परिवार ही तो
गांधी के भारत को चला रहा है। फिर मुझे क्यों परेशान करते हैं गांधी? आप ही
बताइए!!
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