शैलजा पाठक अपनी पुस्तक के आवरण पृष्ठ पर
जिसकी लेखनी अपनी विशिष्टता की पराकाष्ठा पर भी अपनी मासूमियत से जुदा नहीं होती हो, शैलजा पाठक ऐसी ही मस्त मलंग रचनाकार हैं ।
संस्मरण और कविता दोनों ही विधाओं पर आप का समान अधिकार है, जिन में अपने किरदारों के साथ ही साथ पूरे घटनाक्रम और माहौल को जीवंत कर आप साहित्यप्रेमियों के लिए साहित्य का एक नया चटख स्वाद प्रस्तुत करती हैं । आप की कविता पर टिपण्णी लिखी है डॉ
श्रीश पाठक ने जो कि यूँ तो राजनीति शास्त्री हैं पर साहित्य ही आप का पहला प्रेम है । आइये इस अद्भुत युग्म का आस्वाद करें । -डॉ गौरव
कबीर
|
हाथ उठाओ नही
हाथ बटाओ
कि जिंदगी के पहिये
संतुलन से
बार बार समझाओ नही ..
जताओ नही
कि समझो हमारी भी
एक तुम कमाने वाले का दंभ और चोट हर रोज़ क्यों
सुबह दूध की दस्तक से
रात दूध उबलाती औरतें
जिंदगी की सफेदी में मिलाती है तमाम रंग
वो जो लाती है अपने टीन वाले बक्से में
तुम्हारे बच्चो की
नींद में जागती हैं
तुम्हारे सुकून में
सोती है करवट भर
ये मैं मैं तुम तुम
के प्रलाप में
जहर घुलता है .
.दीवारे कच्ची पड़
जाती हैं
नींव की मजबूती का
खतरा बना रहता है
बच्चे दूर जाती ट्रेन में सवार हो जाते हैं
अपने सपनों के साथ
हम एक नितांत अकेले स्टेशन पर
सूखे पड़े नल पर हाथ मारते हैं बूंद भर पानी के लिए
जो ना जाने कबसे सूखा पड़ा है
.............................!!!
【 *शैलजा पाठक* 】
[सोच की साजिशे हैं...तभी तो सरेआम अपने लोगों से पिटती
स्त्री समाज में कोई प्रश्न नहीं पैदा कर पाती । लोग इसे रोजमर्रा की घिसपिट मानते
हैं । नॉर्मल लगता है ये, शरीफों को । स्त्री होकर स्त्री पर लिखना एक विश्वसनीयता
तो सुनिश्चित करता ही है, साथ ही यह दिखाता है कि एक हावी मर्दवादी सोच की परतों
को मिल रही हैं चुनौतियाँ...धीरे ही धीरे पर पुरजोर...!!! इस आशय से शैलजा पाठक
जी की यह कविता एक सशक्त अभिव्यक्ति है ।
समता, समझ और कर्त्तव्य मांगती है । कर्तव्यों से अधिकारों
की प्रस्तावना बनती है । इसमें व्यतिक्रम बस प्रेम-स्नेह ममता के हस्तक्षेप से संभव
है जो स्त्री के लिए सहज है; उसे इसे ओढना नहीं होता, वह इसमें लिपटी ही होती है ।
पर प्रेम, स्नेह, ममता उसकी कमजोरी नहीं है, उसकी उदात्तता है । पुरुष/ पुरुषवादी समाज
की मूढ़ता, व कर्त्तव्यहीनता, स्त्रीप्रश्न झेल नहीं पाती, फिर जिन हाथों को स्त्री
की कोमल हथेलियों से मिलकर जीवन संगीत संग रचना था, वे हाथ उठते भी हैं तो हिंसा
के लिए, भयादोहन के लिए । वे तमाचे स्त्री से अधिक उन स्त्रीप्रश्नों पर पड़ते हैं,
जिनकी टीस स्त्री से उसकी अस्मिता ही छीन लेते हैं । संजीदा सजग कवयित्री ने कविता
के पहले चार शब्दों “हाथ उठाओ नही, हाथ बटाओ” के पहले दो शब्दों में ही ऐतिहासिक व
समकालीन प्रश्न भी छेड़ दिया है और अगले दो शब्दों में व्यावहारिक हल भी सुझा दिया
है । ज़िंदगी के बड़े सवालों के हल अक्सर इतने सरल होते हैं कि उनपर यकीन ही नहीं
होता और वे हल ज्यादातर के लिए अछूते रह जाते हैं । हमें कठिन प्रश्नों के जटिल
उत्तर ही जंचते हैं । ‘हाथ बंटाना’ ही हल है, इसमें विकल्प ही नहीं है । ध्यान रहे हाथ वह ही बंटायेगा जो समता को जिएगा
। स्त्री नहीं मांगती समता, वह तो किसी होड़ से परे है, वह बस इतना चाहती है कि उसकी
अस्मिता का लोप ना हो । मिटना-घुलना-मिलना भी हो तो यह उसका अपना विकल्प हो, बस । तभी
तो कवयित्री कहती हैं-
“बार
बार समझाओ नही ..
जताओ
नही
कि
समझो हमारी भी”
जिस क्षण तुम जताते हो, गिर जाते हो तुम उस आदर्श से जिसे
तुम्हें समझना था स्त्री से l
कमाने का दंभ भी और फिर पल-पल इसका प्रहार भी...! पुरुष के
कमाने का प्रमाण कुछ छुई जा सकने वाली जरुरी चीजें हैं, जिनकी लगी हुई कीमतें भी
बाजार में स्थिर नहीं हैं, किन्तु कैसे हिसाब होगा जबकि स्त्री जरुरी उन चीजों को
पैदा करती रहती है, जिनके बिना जीवन से जल रिस जाता है....जहाँ बाजार फटक ही नहीं
सकता, वे चीजें अमोल हैं । कवयित्री स्पष्ट घोषणा करती हैं (एक तुम कमाने
वाले का दंभ और चोट हर रोज़ क्यों) – कि यह दंभ है कमाने का वह भी अर्थहीन,
जलहीन....उसपर हर रोज की चोट.... पुरुष/ पुरुषवादी समाज को बहुत बौना बना देती है
।
‘’सुबह दूध की दस्तक से
रात दूध उबलाती औरतें’’
ज़िंदगी के लिए जरुरी खुराक की दस्तक सुनती है, बटोरती है और
उसे उबालकर आगे के लिए सहेजती भी चलती रहती है । कवयित्री अगली पंक्तियों में (जिंदगी
की सफेदी में मिलाती है तमाम रंग, वो जो लाती है अपने टीन वाले बक्से में)
बिना प्रश्नवाचक हुए मानों प्रश्न करती हैं-क्या होती है सफ़ेद सी सपाट ज़िंदगी पुरुष
की तब तक जबकि स्त्री ससुराल उस टिन के बक्से के साथ आ नहीं जाती । उस टिन के
बक्से में जो चीजें वो लाती है, उनमें भार हो ना हो, सभ्यता की अनगिन परम्पराओं
में रंग वहीँ से भरते हैं और पुरुष की खुरदरी खटपट ज़िंदगी सरपट सी रंगीन हो खिलने
लग जाती है ।
इस छोटी सी कविता में जिसमें की महज चार-पांच शब्दों वाली बमुश्किल
चौबीस पंक्तियाँ भी नहीं हैं, अभी और भी विमर्श यशस्विनी कवयित्री ने टांक दिए हैं
।
‘’तुम्हारे बच्चो की नींद में जागती हैं
तुम्हारे सुकून में सोती है करवट भर’’
बच्चे तो दोनों के ही हैं, पर ‘तुम्हारे बच्चे’ लिखने में
एक पीड़ा है । अंततः बच्चा समाज में पिता का हो जाता है, तो क्या हुआ उसके सोने में
जागती माँ है । और फिर खटर-पटर, आपाधापी भरी ज़िंदगी में सुकून पुरुष के पास भी
थोड़ा ही है, और उसमें स्त्री उतना सो लेती है जितना एक करवट में नींद समाती है । सच
है, अपनी चिंताओं से इतर पुरुष की चिंता भी उसे खाए जाती है तभी तो अपनी बीमारी भी
वह खुद खाए जाती है ।
कवयित्री केवल स्त्रीबोध से ही सरोकार नहीं रखतीं, उनमें
जीवनबोध भी लबालब है । अगली पंक्तियों में वे चेताती हैं कि ‘मै’ और ‘तुम’ का खेल
तो नहीं ही है ज़िंदगी....’हम’ से ही परिवार है । आगे एक बहुत ही गहरा बिम्ब रचती
हैं कवयित्री और एक गंभीर विमर्श भी छेड़ देती हैं, जब वे कविता को निष्कर्ष तक
लाती हैं:
‘’बच्चे दूर जाती ट्रेन में सवार हो जाते हैं
अपने सपनों के साथ
हम एक नितांत अकेले स्टेशन पर
सूखे पड़े नल पर हाथ मारते हैं बूंद भर पानी के लिए
जो ना जाने कबसे सूखा पड़ा है!’’
बच्चों की परवरिश में दोनों खुद को यों खपा देते हैं, जैसे
बच्चे उस ट्रेन से वापिस आयेंगे कभी । उनके जतन के ‘तू तू मै मै’ में एक-दूसरे के
एहसास से ही महरूम हो जाते हैं दंपत्ति । खलील जिब्रान याद आते हैं मुझे-‘बच्चे
हमसे हैं, हमारे नहीं हैं...!’ उनकी ज़िंदगी है अपनी, अपनी यात्रा है । संतोष
की अमृत बूँद उनमे तलाशने की बजाय साहचर्य में साथ-साथ वह रस इकठ्ठा किया जाय तो
बेहतर । कवयित्री ताकीद करती हैं कि- देखो कबसे सूखा पड़ा है...इसे साथ ही सींचा जा
सकता है, जल साथ में ही मिल सकता है ।
कहना होगा कि कविता समानांतर विभिन्न विमर्शों को तहकर थामे
चलती है, सन्देश देती है, ताकीद करतीहै और यह सब असाधारण रूप से वह चंद शब्दों में
कर लेती है, यही इस कविता का चमत्कार है और यही कवयित्री की सुफलता है । ] *डॉ.
श्रीश
*डॉ. श्रीश |
0 comments:
Post a Comment
आपकी विशिष्ट टिप्पणी.....