अम्बर रंजना पाण्डेय |
आज की भाषिक
लीपापोती के इस युग में ऐसे तथाकथित 'कविताकारों'
की तादात बहुत
बढ़ी है कि,
कविता जिस भाषा
में सम्भव होती है,
उससे उनका
सम्बन्ध बड़ा उथला है। भाषा को वे माँग-पूर्ति के नियमों की वस्तु समझते हैं, कविता के भाषिक सरोकार तो दूर की वस्तु है।
दर्शन के विद्यार्थी
'अम्बर रंजना पाण्डेय' ने हिन्दी के अतिरिक्त, संस्कृत, उर्दू,
अंग्रेजी और
गुजराती भाषा में भी कविताएं लिखी हैं। अम्बर की कविताएं कविता के समकालीन
परिदृश्य में अपनी सायास भिन्नता से न सिर्फ एक बहस आमन्त्रित करती हैं, बल्कि लोक और जीवन को नए ढंग से देखने का
प्रस्ताव भी करती हैं। इस बार के 'नवोत्पल
साप्ताहिक चयन'
में 'अम्बर रंजना पाण्डेय' की कविता "बहुत हैं मेरे प्रेमी"
पर अपनी टिप्पणी का योग कर रही हैं, 'डॉ. चेतना पाण्डेय'। चेतना जी स्वयं भी मासूम और मार्मिक
अनुभूति की ख्यातिलब्ध कवयित्री हैं। आइये इस कविता और टिप्पणी का आस्वाद करें (डॉ जय कृष्ण मिश्र "अमन")
बहुत हैं मेरे प्रेमी
मैं तो भ्रष्ट
होने के लिए ही
बनी हूँ
बहुत हैं मेरे
प्रेमी
पाँव पड़ता हैं
मेरा नित्य
ऊँचा-नीचा
मुझसे सती होने
की आस
मत रखना, कवि
मैं तो अशुद्ध
हूँ
घाट-घाट का जल
भाँत-भाँत की
शैया
भिन्न-भिन्न
भतोर का भात
सब भोग कर
आई हूँ तुम्हारे
निकट
प्रौढ़ा हूँ, विदग्धा हूँ
जल चुकी हूँ
यज्ञ में, चिता में, चूल्हे में
कनपटियों की
सिरायों में
टनटनाती रहीं
सबके,
दृष्टि में
रही अदृश्य होकर, जिह्वा पर
मैं धरती हूँ
कलेवर
उदर में क्षुधा, अन्न में तोष
निद्रा में भी
स्वप्न खींच
लाया मुझे
और ले लिया मेरे
कंठ का चुम्बन
फिर कहती हूँ, सुनो
ध्यान धरकर
मैं किसी एक की
होकर नहीं रहती
न रह सकती हूँ
एक जगह
न एक जैसी रहती
हूँ
नित्य नूतन रूप
धरती हूँ
मैं इच्छावती
वर्ष के सब दिन
हूँ रजस्वला
मैं अस्वच्छ हूँ
टहकता हैं मेरा
रोम-रोम स्वेद
से
इसलिए मैं
लक्ष्मी नहीं हूँ
न उसकी ज्येष्ठ
भगिनी
मैं भाषा हूँ, कवि
मुझे रहने दो
यों ही
भूमि पर गिरी, धूल-मैल
से भरी
जड़ता में
ढूँढ़ोगे तो मिलेगा
सतीत्व, जीवन तो स्खलन
हैं, कवि
जल गिरता हैं
वीर्य गिरता हैं
वैसे मैं भी
गिरती हूँ
मुझे सँभालने का
यत्न न करो
मैं भाषा हूँ
मैं भ्रष्ट होना
चाहती हूँ ।
[अम्बर रंजना पाण्डेय']
डॉ. चेतना पाण्डेय |
[श्वसन या
स्पन्दन की लय टूट जाय तो शरीर निष्प्राण हो जाता है। जल का प्रवाह बाधित हो तो
उसकी स्वच्छता नष्ट हो जाती है। दुर्गन्ध उठने लगती है। प्रवाहमयता की यह शर्त
भाषा पर कुछ ऐसे ही लागू होती है। भाषा भी समय की चाल में चाल मिलाकर चलने से
इनकार कर स्थिर बैठ जाये तो वह भी अपनी जीवन्तता खोने लगती है।
इस कविता में
भाषा स्त्री रूप धरकर हमारे सम्मुख आती है। परम्परा और सामाजिक मर्यादाओं का बोझ
ढोते-ढोते ऊबी हुई विद्रोहिणी स्त्री पग-पग पर अपने लिये निर्मित अदृश्य
कारागारों पर चीखती है कि कभी वह भी तो,वैसे भी तो हो जैसे वह चाहती है। उसके लिये अब स्वच्छन्दता,बहकने का अधिकार सतीत्व की गरिमा से ज़्यादा
महत्वपूर्ण हो उठा है। क्योंकि युगों-युगों की वर्जना की जडता उसकी चेतना और
रसस्रोत को सोख रही है।
अम्बर रंजना
पाण्डेय की यह कविता,
उपयुक्त भाषा
क्या है,
प्रश्न का उत्तर
भी तलाशती है। वस्तुत: देशकाल के बदलाव के साथ-साथ जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में
बदलाव स्वाभाविक है और आवश्यक भी। भाषा संवाद का माध्यम है। ज़रूरत के आधार पर
वैदिक संस्कृत का लौकिक संस्कृत तक आना और फिर पालि,प्राकृत,अपभ्रंश से खड़ी बोली तक की यात्रा भाषा
के प्रवाह को ही दर्शाती है। ढेरों परिवर्तनों के बाद भाषा यहाँ तक पहुँची है
घाट-घाट का जल
भांत-भांत की
शैया
भिन्न-भिन्न
भतोर का भात
सब भोग कर
आई हूँ तुम्हारे
निकट
आज तत्सम,तद्भव,अंग्रेजी और उर्दू के मिश्रण और मिश्रण में
किसकी कितनी मात्रा हो को लेकर विमर्श अनवरत चलता है। कवि यहाँ भाषा की प्रवाहमयता
और सहजता की वकालत करते हैं।यह ज़रूरी भी है। एक ही घर में रहने वाले बच्चे,युवा,प्रौढ और वृद्ध की भाषा,
स्त्री और पुरुष
की भाषा में अन्तर है। सोशल मीडिया,फिल्में और प्रसार के माध्यम भाषा को रोज़ नया कलेवर देते हैं। कविता मानती है
कि भाषा स्वयं पर कोई अंकुश,अनुशासन नहीं चाहती। वह आवश्यकता, परिस्थिति और देशकाल के अनुसार नित नया कलेवर
धारण कर लेना चाहती है
नित्य नूतन रूप
धरती हूँ
मैं इच्छावती
वर्ष के सब दिन
हूँ रजस्वला
कविता ने स्वयं
के प्रवाह के साथ पूरा न्याय करते हुए भाषा की पक्षधरता की कुशल ढंग से पैरवी की
है। स्त्री और भाषा के विमर्श को कवि ने अपने अनूठे अंदाज और टटकेपन के साथ व्यक्त
किया जिसे आद्यन्त पढ़ना कई अनुभूतियों की लम्बी यात्रा से धीरे-धीरे गुजरने जैसा
है।
परिनिष्ठित, परिमार्जित या मानकीकरण की शर्तों के बावजूद सत्य तो यही है कि भाषा जन की है
चाहे वह बहुत व्यवस्थित और संश्लिष्ट न भी हो। अत: सहजता बरकरार रखना जीवन्तता
बनाये रखने की आवश्यक शर्त भी है कदाचित् ।]
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