Vikas Dwivedi |
रचना के बीज हमारे चारो ओर बिखरे पड़े हैं। एक रचनाकार की दृष्टि उसे देखती है, परखती है, पकाती-पचाती है, तब कोई कविता अवतरित होती है। रचनाकार होना बड़ी जिम्मेदारी का काम है। यह दृष्टि और जिम्मेदारी तब और भी ज़्यादा गम्भीर हो जाती है, जब वह साहित्य-शिक्षक तथा पत्रकार भी हो। राष्ट्रीय राजनीति के केंद्र दिल्ली में रह रहे 'विकास द्विवेदी' जी "समकालीन कविता" पर शोध कार्य करने के पश्चात् साहित्य अध्यापन, स्वतन्त्र लेखन, अनुवाद कार्य और स्वतन्त्र पत्रकारिता में सक्रिय हैं।
आज सड़सठ साल जो हुए गणतंत्र के, और इस तंत्र का गण अपने भरे-पुरे मन के साथ बहुधा लोकतंत्र में अनुपस्थित है, फिर इस वार्षिक उल्लास के मायनों में गोते लगाना समीचीन ही है। बदलता हुआ सामाजिक परिवेश, पतित होते सांस्कृतिक मूल्य, मानव-मानव के बीच बढ़ती खाई...... यही अनुभूतियाँ आपकी रचना के केंद्र में है। आपकी कविता पर अपना अनुपम अभिमत दे रहे हैं, अमरेंद्र नाथ त्रिपाठी जी। आप दिल्ली विश्वविद्यालय में हिंदी साहित्य के सहायक प्राध्यापक हैं, अवधी साहित्य के आधुनिक सजग-प्रखर प्रसारकों में एक हैं और एक कुशल कलमकार भी हैं।
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नव सामान्य
के युग में
हत्या
बलात्कार य़ातना
और
आसपास हो रहे अनगिन
जघन्य
पाशविक कृत्य
बन
गए हैं महज सूचना
अब
नहीं करते हमें हैरान परेशान
अब
हम नव सामान्य युग में हैं
कल
तक जो कुछ भी था
आपत्ति
जनक
निन्दनीय
घृणित
मनुष्यता
और समाज के चेहरे पर कलंक
अब
वैसा नहीं है
जो
आज है
आपत्ति
जनक
निन्दनीय
घृणित
मनुष्यता
और समाज के चेहरे पर कलंक
कल
वैसा नहीं रहेगा
वह
रोज रोज दिखते दिखते
हमारे
आसपास
हो
जाएगा बहुत सामान्य सा
हमेशा
की तरह
हम
बन्द कर देंगे उससे नफरत
बगैर
ठोस प्रतिकार के
चेतना
के एक कोने में हम दफन कर देंगे
उसके
लिए प्रयोग होने वाले
सारे
खराब शब्द
स्वीकार
करते अपनी ज़िन्दगी
अपने
समाज का अनिवार्य जैसा
फिर
पूरी बेशर्मी से
लगाएंगे
ठहाके
पिएंगे
चाय काफी बियर
खुशी
खुशी जाएंगे सिनेमा
हम
नव सामान्य के युग में जी रहे हैं
उस
सबको नित बनाता सामान्य
जो
कल तक रहता आया बहुत ही असामान्य
नव
सामान्य का कमाल यह
जो
कल तक था अजनतांत्रिक
अब
हो गया जनतांत्रिक
जो
कुछ भी था अमानवीय
अब
दिखने लगा सहज
जो
कल तक था बहुत असामाजिक
वह
सामाजिक बन हो गया
सहज
स्वीकार्य
अब
इसी नव सामान्य की परिधि में
हम
परिभाषित करेंगे अपना चेहरा
और
खुश रहेंगे
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कार्टून साभार: द हिन्दू |
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समय और समाज के
संवेदनहीन होने का खतरा हर
समय और समाज में
रहता है। ऐसा न हो यानी
संवेदनहीनता का पसारा न
हो, इसके लिए साहित्य और कलाएँ अपना
दायित्व निभाती हैं और उस उदात्त(जिसकी चर्चा लोंजाइनेस ने की है)
को बनाए/बचाए रखने का काम करती
है जो मनुष्य को
मनुष्य बनाने की सतत चेष्टा
करता है। अकारण नहीं है कि साहित्य-संगीत-कला विहीन’ को ‘सींग-पूछ विहीन’ पशु ही समझा गया
है जो तृण नहीं
खाता। अधिक सौभाग्यशाली तो पशु होगा
फिर। कविता का कार्य मनुष्य
के भीतर जड़ता भर रहे भावों
के खिलाफ संवेदनशीलता की संवेदनशीलता की
कार्रवाई को सुनिश्चित करना
है। विकास द्विवेदी की कविता ‘नव
सामान्य के युग में’
इसी कार्रवाही में संलग्न कविता है।
‘नव सामान्य’ शब्द-युग्म दिलचस्प है। कविता में दूसरी जगहों पर भी संवेदनहीनता
की ‘सामान्यता’ को रेखांकित किया
गया है। यकीनन युगों और समाजों में
यह खतरा उतना ही सामान्य है
जितना इसके प्रतिरोध की परंपरा। ‘नव
सामान्य’ का अभिप्राय यह
सामान्यता नये समय, हमारे आधुनिक समय में, कैसी है? या जैसी है
उसमें हो क्या रहा
है। पूर्व सामान्य से यह नव
सामान्य कैसे अलग है। इस सिलसिले पर
कवि का ध्यान है:
कल
तक
जो
कुछ
भी
था
आपत्तिजनक
निन्दनीय
घृणित
मनुष्यता
और
समाज
के
चेहरे
पर
कलंक
अब
वैसा
नहीं
सामान्य प्रवृत्ति या सच की
नवता में अब समस्याएँ नयी
तरह की हैं। इस
नये में गति है। ठहराव नहीं। सूचनाओं का अंबार है।
अनुभूतियाँ नहीं। संवेग हैं। सुकून नहीं। ठहराव, अनुभूति और सुकून का
जोखिम लेने के लिए नव
मानुस तैयार नहीं। वजह है, ‘स्पर्धा की हड़बड़ी’।
दौड़ में सभी। कहाँ जाना है, बिना इसे विचारे। यह जो बिना
विचारे का भाव है,
यही विसंगति और त्रासदी के
मूल में है।
जीवन जीना एक शैली, रूढ़
अर्थ में, हो गयी है।
सब उसी शैली में ढल जाने को
जीना मानते हैं। यह शैली, ज्ञान-अनुभूति-विवेक सभी पर हावी है।
इस शैली के, इस ढर्रे के
पार जाएँ तो जाएँ कैसे।
बहुत लोग जिस धारा में बह रहे हों,
भले वह कर्मनाशा की
धारा हो, वही बेहतर। यही रूढ़ जीवन शैली उघाड़ी गयी है, कविता में:
फिर
पूरी
बेशर्मी
से
लगाएँगे
ठहाके
पिएँगे
चाय
काफी
बियर
ख़ुशी
ख़ुशी
जाएँगे
सिनेमा
इस कविता में
इस विडंबना को दिखाया गया
है कि एक तरफ़
तो इंसान का दिमाग तो
काफी तरक्की की ओर बढ़
गया है तो दूसरी
तरफ़ उसके दिल का दायरा संकुचित
हो गया है। कविता भावयोग की साधना कही
गयी है। कविता द्वारा हृदय-पक्ष के संकुचित होने
को लक्षित किया जाना स्वाभाविक और अनिवार्य है।
इस अनिवार्य भूमिका के लिए कवि
और कविता को बधाई! आगे
भी इस जरूरी दाय
को निभाया जाय, ऐसी शुभकामनाएँ!
Amrendra Nath Tripathi |