नवोत्पल गुरुवारीय विमर्श

 


Thursday, January 19, 2017

#11# साप्ताहिक चयन:शीत और प्रेम/ 'लवली गोस्वामी'

एक सशक्त स्त्री, जिसे मिथक मोहते हों, सजग इतनी कि यह पड़ताल भी करती चलती है कि कहीं स्त्री खुद महज मिथ तो नहीं बना दी गयी है. दखल प्रकाशन से एक पुस्तक ‘प्राचीन भारत में मातृसत्ता और यौनिकता’ प्रकाशित. कलम से जो एक सम्मोहन रचती हों, ऐसी संवेदनशीलता वाली रचनाकार हैं लवली गोस्वामी जी. आपकी कविता शीत और प्रेम आज की चयनित साप्ताहिक प्रविष्टि है.

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शीत और प्रेम

मेरे लिए प्रेम मौन के स्नायु में गूंजने वाला अविकल संगीत है
तुम्हारा मौन प्रेम के दस्तावेजों पर तुम्हारे अंगूठे की छाप है
रात का तीसरा प्रहर
कलाओं के संदेशवाहक का प्रहर होता  है
जब सब दर्पण तुम्हारे चित्र में बदल जाते हैं
मै श्रृंगार छोड़ देती हूँ
जब सुन्दर चित्रों की सब रेखाएं
तुम्हारे माथे की झुरिओं का रूप ले लेती हैं
मैं उष्ण सपनों के रंगीन ऊन पानी में बहाकर
सर्दी की प्रतीक्षा करती हूँ

सर्दियाँ यमराज की ऋतु है
सर्दियाँ पार करने के आशीर्वाद हमारी परम्परा हैं
* पश्येम शरदः शतम्
** जीवेम शरदः शतम्
मृत्यु का अर्थ देह से उष्णता का लोप है
तो शीत प्रेम का विलोम है
अक्सर सर्दियों में बर्फ के फूलों सा खिलता तुम्हारा प्रेम मेरी मृत्यु है

तुम मृत्यु के देवता हो
तुम्हारे कंठ का विष अब तुम्हारे अधरों पर हैं
तुम्हारे बाहुपाश यम के पाश हैं
सर्दिओं में साँस - नली नित संकीर्ण होती जाती है
आओ कि  आलिंगन में भर लो और स्वाँस थम जाये
न हो तो बस इतने धीरे से छू लो होंठ ही
कि प्राणों का अंत हो जाये

चित्र में खुशबू-छायांकन:सुशील कृष्णेत 


तुम मेरी बांसुरी हो
प्रकृतिरूपा दुर्गा की बाँसुरी
तुममे सांसों  से सुर फ़ूँकती मैं
जानकर कितनी अनजान हूँ
छोर तक पहुंचते मेरी यह सुरीली साँस
संहार का निमंत्रण बन जायेगी

मेरे बालों में झाँकते सफ़ेद रेशम
जब तुम्हारे सीने पर बिखरेंगे
गहरे नील ताल के सफ़ेद राजहंसों में बदल जायेगे
ताल, जिसे नानक ने छड़ी से छू दिया कभी न जमने के लिए
हंस, जो लोककथा में बिछड़ गए कभी न मिलने के लिए
मेरे प्रिय अभागे हरश्रृंगार इसी प्रहर खिलते हैं
सुबह से पहले झरने के लिए
सृष्टि के सब सुन्दर चित्र मेरा - तुम्हारा वियोग हैं

मेरे मोर पँख, कहाँ हो
मेरा जूडा अलंकार विहीन है
मेरी बांसुरी, मेरी सृष्टि लयहीन है.

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# "पश्येम शरदः शतम्" - हम सौ शरदों तक देखें, सौ वर्षों तक हमारे आंखों की ज्योति स्पष्ट बनी रहे.
#" जीवेम शरदः शतम् "  - हम सौ शरदों तक जीवित रहें .


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व्याख्यातीत हैं प्रेम व जीवन ये दो विषय, यकीनन, परन्तु इन पर व्याख्याओं की अतिशयता कई बार यह भ्रम पैदा करती है कि इन व्याख्याओं में ही जैसे जीवन हो अथवा इनमें ही प्रेम महकता हो. सच तो यही है कि शब्द चूक जाते हैं, उस महसूसे को कहने में जो जीवन और प्रेम में महसूसा जाता है. हाँ, कविता वो अद्भुत विधा है, जहाँ उस अबोले को बोल पाने की गुंजायश सर्वाधिक है; अगर कवि चितेरा हो, शब्द-मितव्ययी हो और शब्दों की स्वाभाविक साधना भी उसने साधी हो. स्वाभाविकता की सीपी में ही यथार्थ का सत सुरक्षित रहता है. उस स्वाभाविकता के साथ कवयित्री ने एक अद्भुत कविता रची है. ईश्क को तो दीवानों ने चाय की वो केतली कह दी है, कमबख्त जिसे बार-बार गरमानी पड़ती है, पर यहाँ तो कवयित्री ने प्रेम के साथ शीत का पैमाना कसा है.

‘मेरे लिए प्रेम....’ 

इन शब्दों से प्रारम्भ होती है कविता. स्पष्ट है कि कवयित्री प्रेम की अपनी प्रतीति पर कह रही है. यह स्पष्टता स्थापित करती है कि शब्दकार प्रेम को लेकर किसी ऐसे अहं का शिकार कत्तई नहीं है, जो उसे प्रेम की सार्वत्रिक व्याख्या के लिए उकसाती हो. यह एक सुन्दर प्रस्थान है कविता-यात्रा की. अहा...प्रेमिका के लिए प्रेम यहाँ वह संगीत है जो मौन के स्नायु में अविकल झंकृत होता है. कविता तो मानों इसी पहली पंक्ति में ही अपनी इयत्ता स्थापित कर लेती है, पश्चात इसके तो बस जैसे महात्म्य शेष रहता हो. मौन का संगीत और स्नायुओं में बहता अविकल स्पंदन. मौन यानी एक प्रकार की स्वीकार्यता व सततता की जाग्रत समाधि और प्रेम का मौन तो एक संगीत सरीखी समाधि, अविकल; वैसा उदात्त प्रेम ही उसके अस्तित्व का स्पंदन है.  वहीं, प्रेमी का प्रेम; प्रेम के समस्त पैमानों पर उसकी सम्मति है. 

रात के पहले, दूसरे प्रहर की प्रतीक्षा अथवा संयोग का ताप त्रियामा तक निर्णायक हो जाता है.
रचनात्मकता के नए नए कलेवर सूझते हैं. 
कला व कलाकार एकाकार हो उठते हैं, मानो. और फिर हर दर्पण पर जब प्रियतम की मुसकाती छवि उभरने लग जाती है तो शृंगार अपनी प्रासंगिकता खोने लग जाता है.

जब सब दर्पण तुम्हारे चित्र में बदल जाते हैं
मै शृंगार छोड़ देती हूँ.

यह प्रेमिका का युवपन का समर्पण है, जो यहीं कहाँ थमेगा अभी. 
वह तैयार है जीवन के मध्याह्न एवं अपरान्ह के लिए भी. 
जो स्वप्न बुने गए हों प्रेम की पारस्परिक उष्मा में, जिन स्वप्नों ने अब तक जब तब क्षण क्षण के रोचक आयाम सिरजे हों, समय के साथ उनके बिना भी चलने का माद्दा भी है इस प्रेम में और अनंत की यात्रा के लिए भी यह प्रेम तैयार दिखता है. जीवन सूर्य से ही है. उष्मा से ही स्पंदन है. पर शीत तो मृत्यु की ओर उद्द्यत करती है. देह से उष्णता का लोप ही तो मृत्यु है. पर उस शीत में भी प्रेम बर्फ़ के फूलों की मानिंद उभर आया है...तो क्या हुआ मृत्यु आलिंगन की औपचारिकता निभानी पड़ी है. 

तुम यम भी हो तो मेरे प्यारे यम हो. जीवन के तमाम दुर्घर्ष का विष जो इकठ्ठा है तुम्हारे कंठ में, जिसे चुपचाप तुम पीते गए हो जीवन के साथ वो अब शीत ऋतु के पश्चात तुम्हारे अधरों तक छलक आयी है...उसे पीने के लिए मै प्रेमपगी तैयार हूँ, प्राण तुच्छ हैं जो ये साझेदारी का आलाप संभव हो सकें. 

तुम मेरी बांसुरी हो
प्रकृतिरूपा दुर्गा की बाँसुरी

इन पंक्तियों में कवयित्री ने प्रचलित-पारम्परिक साहित्यिक बिम्बों में व्याप्त पितृसत्तात्मक पक्षपात को अनायास ही सहसा चुनौती दे दी है. यहाँ बांसुरी प्रेमी है, स्वर प्रेमिका के हैं. सरंचना प्रेमी से है तो प्राण प्रेमिका से है.

तुममे सांसों  से सुर फ़ूँकती मैं
जानकर कितनी अनजान हूँ
छोर तक पहुंचते मेरी यह सुरीली साँस
संहार का निमंत्रण बन जायेगी

प्रेमी के माध्यम से अभिव्यक्ति सम्पूर्ण होते ही अस्तित्व का विलोपन हो, प्रस्तुत है प्रेमिका उस चरम के लिए भी. प्रेम की उसकी तैयारी इसके आगे की भी है. 
जब देह अपनी परिणति पर होगी, प्रेमिका के वे घुंघराले बाल जब श्वेत रेशम से चमकेंगे और पसरेंगे वे प्रेमी के सीने पर तो यह प्रतीति इतनी ही गहरी होगी जितनी कि गाढ़े नीले ताल में दो श्वेत राजहंस उन्मुक्त उड़ते उभरेंगे गहरे किसी कालजयी चित्र में. 
वो ताल प्रेम से इतने पवित्र होंगे, इतने उदात्त होंगे कि उनका अमृत किसी संकीर्णता में ना आकर प्रेम के विराटपन में बहेगा. ताल का अमृत बंटता रहे सो वे श्वेत राजहंस वियोगधर्म की मर्यादा भी निभाएंगे.

मेरे प्रिय अभागे हरश्रृंगार इसी प्रहर खिलते हैं
सुबह से पहले झरने के लिए
सृष्टि के सब सुन्दर चित्र मेरा - तुम्हारा वियोग हैं

तो जैसे तीन प्रहर की तैयारियों के बाद ओस वाली जमीन पर हरसिंगार के फूल बिछकर उषा का स्वागत करते हैं, यह वियोग परस्पर प्रेम का सर्वोत्कृष्ट उदात्त स्वरूप स्थापित करेगा. हाँ इस वियोग में भी मै, हे मेरे मोरपंख अवश्य तुम्हें टटोलती रहूंगी. 

कविता कैसी रही, इसकी उपलब्धि क्या रही, कवयित्री की भाव-भूमि क्या थी, इस सबका उत्तर कुछ यों क्यूँ ना दिया जाय कि- इस कविता ने अंततः हिंदी साहित्य की महान कवयित्री महादेवी वर्मा की कविता ‘अधिकार’ की स्मृति पुनः करा दी जिसकी आख़िरी चार पंक्तियाँ यों हैं : 

“क्या अमरों का लोक मिलेगा
तेरी करुणा का उपहार?
रहने दो हे देव! अरे
यह मेरा मिटने का अधिकार!”


(डॉ. श्रीश)


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