नवोत्पल गुरुवारीय विमर्श

 


Thursday, February 2, 2017

#13# साप्ताहिक चयन: 'आत्मस्वीकृति '/ 'उपासना झा '

उपासना झा 
 आज की कविता चयनित है आदरणीया उपासना झा जी की। आप एक प्रखर-सजग संजीदा कवयित्री हैं। आपका अनुभव जगत समृद्ध है और कलम सुसंतृप्त। आपकी कविता पर प्रतिक्रिया दे रहे हैं साहित्य के पारखी, सम्यक इतिहास बोध के स्वामी एवं बहुआयामी व्यक्तित्व के धनी श्री रविकृष्ण त्रिपाठी 'गन्धर्व ' जी। आइये देखें कि जब विरह शब्द पाते हैं तो उसके आयाम कैसे एक साहित्य रसिक को संस्पर्श करते हैं।- डॅा.श्रीश

******************************************************************************** 

   आत्मस्वीकृति 
---------------------------

नींद की चौहद्दी पार कर
स्वप्नों के धुँधले रास्ते पर 
चलने लगती हैं कुछ अबूझ पीड़ाएँ
जो खींचती है एक बारीक महीन रेखा 
अकेले होने और अकेले पड़ जाने के बीच 
अपने को समझाने के कई तरीकों में 
हम सृष्टि के नियम एक बार फिर दुहरा लेते हैं
पेंटिंग : रविकृष्ण त्रिपाठी 'गन्धर्व '
'जातस्य हि ध्रुवो मृत्युर्ध्रुवं जन्म मृतस्य च'
मन के शून्य-मंदिर में 
न कोई स्वर है न कोई सुगंध
सब कठोर है प्रस्तर पिंडो सा
जिसे होना चाहिए था नये जन्मे 
शिशु की मुस्कान सा कोमल
मनुष्य का वही हृदय दुनिया की सबसे कठोर वस्तु भी हो सकती है
ये उस बात को सिद्ध करते हैं कि 
तुम्हारे नहीं होने के बाद भी मैं जिंदा हूँ


-----उपासना झा

*******************************************************************************

कविता के आरम्भ से ही विरह की विविध अनुभूतियां कविता में अभिव्यक्त होती रही हैं । कहते हैं कि पहली कविता का जन्म ही विरह की ही देन था और तब से अब तक समय की गंगा में जबकि बहुत सा पानी बह चुका है, विरह अब भी कविता का विषय है । हाँ, देश-काल में हुए परिवर्तन ने कहीं न कहीं जरूर कविता की भाषा, उसकी शैली को प्रभावित किया हो लेकिन विरह की मूल वृत्ति अब भी अपरिवर्तित ही है । और यह मूल वृत्ति है 'प्रिय का स्मरण', 'स्मृतियों का दोलन', 'जीवन की अर्थहीनता' और अंततः 'पीड़ा' । किसी को इसी पीड़ा में जीवन का आनंद महसूस हुआ तो किसी के लिए यही पीड़ा इस संसार का अंतिम सत्य थी । 

आइये, अब इसी पूर्वपीठिका के आलोक में "आत्मस्वीकृति" कविता की ओर चलते हैं । कविता का आरम्भ नींद की चौहद्दी से होता है । वह चौहद्दी जहाँ से एक मोही संसार पीछे छूट जाता है और एक दूसरे संसार का आरम्भ होता है, जो स्वयं का सृजन होता है, जो स्वायत्त है, स्वछन्द है लेकिन स्वतंत्र नहीं है । यही वजह है कि इस संसार के रास्ते अक्सर धुंधले होते हैं । यह धुंधलका और कुछ नहीं बल्कि परंपरा से लेकर व्यक्तिगत कुंठा तक के दबाव से उपजा संशय है । जो भय उत्पन्न करता है, जिस से विवेक का हरण हो जाता है । निराला की 'राम की शक्तिपूजा' में राम जैसा धीर नायक भी इसी संशय के चलते डगमगाने लगता है । 

लेकिन अब जबकि हम उत्तर-उत्तर आधुनिक कालखंड में प्रवेश कर चुके हैं और वैयक्तिक अस्मिता हमारे डीएनए का अभिन्न हिस्सा बना चुकी है, स्वप्न के धुंधलके में एक बारीक विभाजन हमारे द्वंद्व का हिस्सा हो जाता है । यहीं से सारी उठापटक शुरू होती है । यह विभाजन है क्या आखिर ? यह अकेला होना और अकेले पड़ जाने के मध्य का विभाजन है । अकेला होना इस बात का संकेत है कि अभी संयोग की संभावनाएं विद्यमान हैं और अकेला पड़ जाना इसी परिघटना का दूसरा छोर है । इन दोनों के बीच में जो शून्य है, वहीं से इस कविता ने जन्म लिया है । लेकिन वह शून्य एकदम ही खाली नहीं है बल्कि यही वह बिंदु है जहाँ पर अजनबियत, संत्रास, विलगीकरण और इन सबके साथ बाज़ार का दबाव एक साथ पड़ रहा होता है । मैं निष्ठावान मार्क्सवादी नहीं हूँ लेकिन मार्क्सवाद की अपनी समझ और अंतश्चेतना व सजगता के कारण कह सकता हूँ बाज़ार ने हमारी लगभग सभी मानवीय भावनाओं को प्रोडक्ट बना दिया है । इसके ऊपर दिखावे का इतना हो-हल्ला बरपा दिया है कि कई बार हम समझ ही नहीं पाते कि आखिर हमारे अंदर चल क्या रहा है । यह ही वह 'अबूझ पीड़ा' बन कर कुहासे से भरे रास्तों पर भटकने लगता है । इस तरह से हम एक अबूझ भटकाव के शिकार हो जाते हैं । अपने दौर के संक्रमणकालीन समाज में अजनबीपन और उसकी अनुषंगी प्रवृत्तियां महज महानगरों तक ही सीमित नहीं हैं । बल्कि वह छोटे नगरों का अतिक्रमण कर कस्बों की ओर दौड़ चली है । 

हम तकनीक के चलते तेजी से वैश्वीकृत हो रहे हैं अकेले होने और अकेला पड़ जाने का विचार हमारी अस्मिता(identity) को प्रभावित करने लगा है । इसे स्पष्ट करने की व्यग्रता हममें बढ़ने लगी है और एक काबिल वकील की तरह हम नज़ीर ढूंढने में लग जाते हैं..अंततः ढूंढ ही लाते हैं..जैसा की कवयित्री ने भी ढूंढ ही लिया है..'जातस्य हि ध्रुवो..।' अर्थात् जिसने जन्म लिया है उसका मरण ध्रुव निश्चित है और जो मर गया है उसका जन्म ध्रुव निश्चित है इसलिये यह जन्ममरणरूप भाव अपरिहार्य है अर्थात् किसी प्रकार भी इसका प्रतिकार नहीं किया जा सकता । आधुनिक जीवन शैली में तर्क का आधार अमूर्त स्वकथन की प्रामाणिकता और पुष्ट कर देता है । 

अकेलेपन की दो परिघटनाओं के बीच अटका हुआ मन उस स्थिती में पहुँच जाता है जहाँ अपेक्षाओं का कोई नाद नहीं होता न ही किसी आकांक्षा की सुवास होती है क्योंकि मंदिर में खंडित देवता की पूजा नहीं होती । ऐसा मंदिर उस भयानक बियांबान से कम नहीं होता जहां खामोशी श्मशान की निर्मिति करने लगती है । मनुष्य जब प्रेम करता है तभी वह सृजन के सौंदर्य को समझ पाता है । अनायास ही कविता में नवजात शिशु की मुस्कान का रूपक नहीं आ गया है । शिशु की मुस्कान भविष्य की विराट संभावनाओं का सबसे सुंदर संकेत होती है । ऐसे में विरह किसी त्रासदी से कम नहीं है । लेकिन कविता के अंत में आकर पाठक को ठिठकना पड़ जाता है । पूरी कविता जहां एक ऐसी स्त्री की गाथा है जो परित्यक्ता की भांति है । शुरू में ऐसा लग सकता है कि कहीं न कहीं उसे सहारे की जरूरत है । लेकिन अंतिम पंक्ति में यह उद्घोषणा कि "मैं ज़िंदा हूँ" यह संकेत भी है और करारा जवाब भी । संकेत इस बात का अकेले होने और अकेले पड़ जाने की बीच की दशा में भी मेरी अस्मिता खोएगी नहीं और जवाब इस बात का है कि भले ही तुमने मुझे छोड़ दिया है लेकिन मैं मरूँगी नहीं । कृष्ण की राधा और कालिदास की 'मल्लिका' ने भी मृत्यु का वरण नहीं किया था बल्कि जीवन को अपनी पूरी अस्मिता के साथ जिया । हाँ, मन में जरूर खंडित देवता था, बियांबान था, न आरती थी न सुगंधि लेकिन स्व का भान था और इसी आत्मस्वीकृति के साथ जीवन का स्वाभिमान के साथ वरण ही वास्तविक विमर्श है ।

(रविकृष्ण त्रिपाठी 'गन्धर्व ')

0 comments:

Post a Comment

आपकी विशिष्ट टिप्पणी.....