नवोत्पल गुरुवारीय विमर्श

 


Thursday, February 23, 2017

#16# साप्ताहिक चयन: 'जिद करती बोलती स्त्रियाँ '/ 'अर्चना कुमारी '

वैसे तो; समझने की कशिश हो, तो एक पुरुष भी समझ सकता है 'स्त्री' की सिलगते सीलन को, यों; 

"और गहरी उदासियों का धुंआ है इर्द गिर्द...
मिट्टी के चूल्हे में
गीली लकड़ियाँ हैं दुःख
ये भी अजीब बात है कि
कई बार मैं लड़कियाँ बोल जाता हूँ
मैं जानता हूँ
अंदर तक भीगे रहने का अनुभव
जो काफ़ी देर तक बचाये रखता है
धू-धू कर जलने से
रात भर रोते रहने का आनन्द...
मैं जानता हूँ लड़कियों!"


...पर आइये देखते हैं, 'स्त्री ' पर लिखी एक उम्दा कविता जो एक संवेदनशील स्त्री ने लिखी हो और एक सजग स्त्री उस पर टिप्पणी कर रही हो तो क्या सिम्पैथी और इम्पैथी का फर्क रह जाता है..फिर भी...! 

इस बार नवोत्पल की चयनित कविता प्रविष्टी है अर्चना कुमारी जी की और उसपर अपनी सहज टीप दी है राखी सिंह जी ने। 

अर्चना कुमारी ने कुछ ही वर्षों में हिंदी कविता में अपना स्थान अपनी समर्थ रचनाओं से बनाया है। अभी ही उनका पहला संग्रह 'पत्थर के देश में देवता नहीं होते' बोधि प्रकाशन से दीपक अरोरा स्मृति पांडुलिपि प्रतियोगिता में पांच विजेताओं में से एक के अंतर्गत प्रकाशित हुआ है। स्त्री जीवन को अपने तात्कालिक समाज और अपनी अलग दृष्टि से देखती कविताओं की रचईता हैं अर्चना कुमारी। अक्सर ही स्त्री जीवन के तमाम प्रश्नों को उठाती हैं। आशा करती हूं जल्द ही उनकी कविताओं में हमें उत्तर भी मिलने लगेंगे। 

राखी सिंह एक reluctant और बेहतरीन कवि हैं और उनकी कविताओं की समझ उतनी ही प्रभावित करती है। 
आप दोनों को मेरी शुभकामनाएं! 


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जिद करती बोलती स्त्रियाँ

(बाएं से ) राखी सिंह जी एवं अर्चना कुमारी जी: फोटो साभार-शशांक मुकुट शेखर

एक से होते होंगे दुःख

हर देश काल के

होती होंगी एक जैसी स्त्रियाँ

युगों के अन्तराल में भी

झुकने की कला में निष्णात करते हुए


कम हो जाता है आवश्यक तनाव

रीढ़ की हड्डियों का

आदी हो जाते हैं कन्धे

पीड़ाओं के बोझ के लिए

अधिकार माँगती

जिद करती

बोलती स्त्रियाँ

पाँव का काँटा होती है

चुभी रहती हैं सीने में

पाँव में जूतियों की तरह

उन्हें पहनने की अदम्य लालसा

मानवता को मार देती है चुपके से

सत्ता को गुलाम चाहिए

आदमी नहीं

हर दुत्कार पर

दुम हिलाते कुत्ते की तरह

डटी रहे देहरी पर

चोट से किंकियाते हुए भी

इतनी समानता अपेक्षित रही है सदियों से

स्त्री और पालतू कुत्ते में ।।



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परिवार भी एक सत्ता ही है। जैसे परिवार में पाले जाते हैं कुत्ते, सत्ता में होते हैं ग़ुलाम।और वैसे ही सदियों से घर ने सुरक्षित रखी है स्त्री की छवि।जिसे जो मिल जाए खा के चुपचाप कोने पड़ा घर की रखवाली करता रहे।जब मन चाहे उसे पुचकार लिया जाये जब मन हो दुत्कार लिया जाए।उसका भौंकना घर की शांति को भंग करता है।महंगे सुंदर आज्ञाकारी नस्ल के वफ़ादार कुत्ते शोभा बढ़ाते हैं घर की।

गुलाम सत्ता की जयजयकार करता रहे,स्त्री घर की धुरी बनी रहे।सत्ता को ज़रूरी हैं ग़ुलाम घर को ज़रूरी हैं स्त्रियां। बोलती ललकारती विरोध करती स्त्री सीलन होती है घर की।उनकी अपने पक्ष में उठी हल्की सी भी आवाज़ से दरक सकती है नीवं घर की।वो बागी बेहया बाज़ारू करार दी जाती हैं।उसे घर में रहने देना घर के संस्कारों के लिए हो सकता है हानिकारक ।

घर को हृदय में संजोये बड़ी हुई स्त्रियां ख़ुद टूट कर भी बचाये रखना चाहती हैं घर को टूटने से।सत्ता को बचाये रखने की भूख ग़ुलाम को बनाये रखती है ग़ुलाम। भविष्य को बेहतर बनाने के लिए स्त्रियां स्वयं को बना लेती हैं यज्ञ कुंड और वर्तमान को करती हैं उसमे स्वाहा।

अर्चना कुमारी युवा कविता की सशक्त हस्ताक्षर हैं।उनकी कविताओं में सहमी सिमटी स्त्रियों के व्यथा की गूंज स्पष्ट सुनी जा सकती है।इस कविता में भी अर्चना अपनी बात कहने में पूरी सफल रही हैं।उनके द्वार प्रयोग किये गए बिम्ब कहीं से भी कृत्रिम नही लगते,बल्कि कविता के कहन को सहज और सरल बनाने में मदद करते हैं।
कहीं कहीं अर्चना की कविता निजी लगने लगती है।सहनशील स्त्री की छवि उकेरती अर्चना की कविता स्त्रियों के दब्बू होने की परिचायक लगती है।इस कविता में स्त्री के विरोध का स्वर क्षणभंगुर है।

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