नवोत्पल गुरुवारीय विमर्श

 


Wednesday, February 22, 2017

तब चुप ही बोलता है...: अपर्णा अनेकवर्णा


#StatusOfStatus



हमारी परदादी कैथी लिख लेती थीं। हम नहीं पढ़ सकते। 
मीज़ो के सभी अख़बार रोमन में छपते हैं। उनकी लिपि चमड़े पर लिखी थी। कुत्ता चबा गया।
हम जब अख़बार पढ़ते तो मुंह से नई ध्वनि झरती जिसका कोई आकार नहीं बनता।
पुराने पत्र/कागज़ात फ़ारसी/उर्दु में हैं। हमें आती नहीं।
घर में जो बहु जहां से आई कुछ टुकड़े बोलियों के लेती आई.. दादी की अवधी अम्मा की बिहार वाली भोजपुरी बाकी गोरखपुर की भोजपुरी.. मुझसे तो सब मिक्स हो जाती हैं।
पापा कलकत्ते से मेडिसन के साथ प बंगाल और बांग्लादेश में बोली जाने वाली दोनों बोलियाँ पढ़ आए। बोल समझ लेते हैं।
हमारी गंगा-जमुनी तहज़ीब में हिंदवी बोली के तमाम पुल बंधे हैं अब भी।
अंग्रेज़ी मुझे अति प्रिय है। उर्दु बांग्ला में हाथ पांव मारती रहती हूँ।
डेरेवाल सब कुछ छोड़ आए सिंधु के उस पार। बस जान, भाषा और एक बिरवा बरगद का ला पाए। सब उग रहे हैं पश्चिमी दिल्ली की शरर्णार्थी कौलोनियों में। मैं 'हिंदुस्तानी' बहू सुनती हूँ किस्से एक पठान शहर के।
बड़ी बहन का कहना है फ्रेंच में दुनिया वाकई ज़हीन हो उठती है।
नेरुदा और मार्क्वेज़ स्पैनिश में पढ़ना ही अनुवाद में खो जाने से बच जाना है।
विक्रम सेठ मैंड्रिन में कविताएं लिखते हैं, सोचती हूं कैसे।
ओरहान पामुक ने बताया आइसलैंडिक भाषा में बर्फ़ के सौ से ऊपर नाम हैं।
कितने ही फूल हैं जिनके नाम उनको पुकारने वाले कबीलों के साथ मर गए। कितनों के नाम कभी रखे ही नहीं गए।
अंडमान की बो जनजाति की इकलौती फ़र्द बोआ सर २०१० में मर गई और साथ ले गई ६५,००० वर्ष पुरानी बो भाषा। कहते हैं उसके इकलौते होते ही भाषा चुप हो गई थी।
हम सब के पूर्वज तो अफ़्रीका से आए थे। द ग्रेट एक्सैडस। मुझे स्वाहिली, ज़ुलू या क्लिक वाली भाषा भी नहीं आती।
अक्सर बहुत बोल लेने के बाद ख़ाली हो जाती हूँ। तब चुप ही बोलता है। अपनी बोली, भाषा में।
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अनेकवर्णा
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