नवोत्पल गुरुवारीय विमर्श

 


Wednesday, February 22, 2017

#१# विश्वविद्यालय के दिन: 'गौरव कबीर '


दीनदयाल उपाध्याय गोरखपुर विश्वविद्यालय का प्रवेशद्वार 
विश्वविद्यालय को साफ सुथरा किया जा रहा था, घने और फले-फूले वृक्षों को “स्लिम” किया जा रहा था l अब पुराने जमाने वाले जलवायु और संस्कृति के अनुकूल विशालकाय वृक्ष नहीं लगाए जा रहे थे “डेकोरेटिव प्लांट्स का कल्चर” आ रहा था, सैकड़ों एकड़ ज़मीन होने के बावजूद “गमलों में बगिया” सज रही थी.... रंगोरोगन से दीवारें चमक उठीं थी... इसी बीच  कुलपति ने चालू हालत वाली एम्बेसडर की जगह कोई लंबी और महंगी गाड़ी खरीद ली थी। सब कुछ इतना भव्य हो चुका था कि गाँव और छोटे शहर से आया हर इंसान घबरा जाया करता था l   विद्यार्थी अभी भी पढ़ रहे थे, नौकरियों में भी आ रहे थे; पर विश्वविद्यालय सिर्फ पाठ्यक्रम पढ़ा रहा था | सब कुछ विकसित हो रहा था सिवाय विद्यार्थियों के क्यूँ कि पुराने वृक्ष चर्चा के लिए जगह देते थे , पर अब लगाए गए गमलों की  बगिया छाया नहीं दे रही थी,  अलबत्ता इनकी सुरक्षा के लिए गार्ड्स लगाए गए थे | 

 शिक्षा का वो मंदिर अपने स्वर्णिम काल से संक्रमण काल की ओर बढ़ रहा था। अपनी बादशाहत साबित करने की हवस से गुरुजनों के तीन तीन संघटन (गिरोह) बन चुके थे, ये वो दौर था जब विद्यार्थियों ने गुरुजनों का पैर छूना कम कर दिया था और उनसे तमाम सवाल पूछा करते थे , कुछ तो ऐसे भी थे जो अपनी असहमति खुलेआम जता भी देते । वैसे छात्र यहां जनता की हैसियत रखता था जो जब तक जी-हुजूरी करे तब तक ही पसंद किया जाता था, लेकिन अब मामला बदल रहा था ।  कुल मिलाकर जानकार गुरुजनों का सम्मान  बढ़ रहा था , जबकि जुगाड़ और रिश्तेदारी से पहुँचे मठाधीशों का अस्तित्व संकट मे आ चुका था। 


एक समय ऐसा भी था जब विश्वविद्यालय की दीवारें रंगीन हस्तलिखित दीवार पत्रिकाओं से पटी रहती थीं, इन दीवार पत्रिकाओं मे दिशा , अभाविप , पछास के साथ ही साथ नवोत्पल की दीवार पत्रिका भी थी । हर महीने होढ़ सी लगी हुई थी की किस की पत्रिका कितनी बेहतर होगी । पर ये ज्ञानवर्धक दीवार पत्रिकाएँ न सिर्फ नए निज़ाम को गलत लगती थीं, बल्कि गंदी प्रतीत होती थी ( ये अलग बात है कि काफी संख्या मे आचार्य और कर्मचारी पान गुटखे की पीक से दीवार रंगा करते थे)l निज़ाम को डर शायद इस बात का भी था कि इन नासमझ छात्रों पर कहीं भगत सिंह, विवेकानंद, पाश जैसे लोगों कि कविताओं/ कथन का असर न हो जाए और छात्र कहीं निज़ाम के गलत कार्यकलापों पर सवाल न उठाने लगें। आखिरकार ये दीवार पत्रिकाएँ ही तो थी जो विद्यार्थियों को सिखाती थी कि “लड़ो पढ़ाई पढ़ने को , पढ़ो लड़ाई लड़ने को” | ये दीवार पत्रिका ही तो थी जिसने परिसर मे विचारों को ज़िंदा रखा था ।वेणुगोपाल की वो कविता जो दिशा की शान थी ... “न हो कुछ भी,सिर्फ एक सपना हो ,तो भी हो सकती है शुरुआत ये शुरुआत ही तो है कि वहाँ एक सपना है । ”

विवेकानंद का कथन जो कि अभाविप को स्थापित करता था  - "संभव की सीमा जानने का एक ही तरीका है , असंभव की सीमा से आगे निकाल जाना ।" दुष्यंत पर तो सब अपना अधिकार जताया करते थे । और इन्ही के बीच नए विचारों को आगे लेकर आया करती थी नवोत्पल की पत्रिका ...नवाक्षर ! जो अपने नए तेवर और कलेवर की वजह से सबका ध्यान खींचने में सफल हो रही थी ।
क्रमशः



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