नवोत्पल गुरुवारीय विमर्श

 


Thursday, March 9, 2017

#18# साप्ताहिक चयन: 'अपनी ध्वनियाँ तलाशते शब्द '/ 'आरती वर्मा '

आरती वर्मा 
जीवन समर्पण से सधता है। कवयित्री आरती वर्मा अपनी संवेदनशीलता से जीवन-मूल्यों की आरती में निपुण हैं और उसकी अभिव्यक्ति जब तब आपकी कलम कविताओं में और कूँची चित्रों में जीवंत होती रहती है। उनकी छोटी-छोटी चार कविताओं ने आज नवोत्पल की साप्ताहिक चयन प्रविष्टि के रूप में अपना स्थान सुनिश्चित किया है। आपकी कविताओं के गुणधर्म को समझा रहे हैं वरिष्ठ शब्दसुधि आदरणीया अपर्णा अनेकवर्णा जी एवं रविकृष्ण त्रिपाठी जी ! 

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1)

उसे कहना नहीं आया 
वो महसूसती और लिखती। 

वो पढ़ता, महसूसता और 
चुप रहता। 

मौन के इस आलाप में 
शब्द अपनी ध्वनियाँ तलाशते रहते 

चित्र: आरती वर्मा 


2)
 कस कर भींच लो गुलाबी मुट्ठी में 
ख़्वाब कोई आसमानी

नाप लो तुम अपने छोटे पंखों से 
धरा और नीले टुकड़े की दूरी

सुनो तलवों में जो चुभन-जलन है न 
उसे मिटने-बुझने न देना

कंधे पर रखे किसी हाथ से
न हो जाना तुम आश्वासित 
तुम्हे खुद ही बनना है अपना आश्वासन

देखो आँचल में बंधी गाँठ में तुम करुणा प्रेम संवेदना के साथ 
रख लेना कुछ बीज आत्मसम्मान और निष्ठा के 
ताकि बनी रहे भीतर की अग्नि में ताप

किसी की स्वीकृति पर नहीं निर्भर है तुम्हारा जीवन 
ना किसी की अस्वीकृति पर तुम्हारा अंत

कि तुम्हे खुद ही रचना है अपना इतिहास

चित्र:आरती वर्मा 


3)
अपने-अपने अँधेरों में गुम 

उजास की अास लिए

खुद के छितरे हुए आश्वासन को बटोरती

कविता कुछ और नहीं

जीवन की सांत्वना है...!

चित्र: आरती वर्मा 


4) 

तुम्हारे स्पर्श की भाषा अदृश्य है और स्पर्शीय भी  
क्यूंकि वो देह से नहीं, शब्द से जुड़ी है 

तुम और मैं जैसे अक्ष पर स्थापित दो समानांतर बिंदु हों  
एक - दूसरे की आभा से रोशन 

तो कभी आरोह अवरोह में स्थापित 
ताल - मेल की तरह तुम और मैं

मेरी यात्रा तुम तक और तुम्हारी मुझ तक
इस 'मेरे' में बेहद महीन स्त्रोत मैं हूँ बाक़ी तुम 

(आरती वर्मा )

चित्र: आरती वर्मा 

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आरती वर्मा मुझे अमृता प्रीतम के परंपरा की कवि लगती हैं। इसका यह अर्थ कतई नहीं कि वो बिल्कुल वैसा ही लिखती हैं। बस यहाँ अमृता की तरह ही एक स्त्री स्वर दिखता है जो गंभीर है और बेझिझक प्रेम कविताएं लिखता है। छोटे से वय में ही इन लघु कविताओं में एक परिपक्व गहराई स्पष्ट दिखती है।

आत्मसम्मान एक ऐसा बिंदु है इन कविताओं का जो एक कविता में तो उभर कर आया है पर अन्य कविताओं में भी एक अन्तर्निहित प्रवाह की तरह बहता रहता है। यहाँ विरह और दूरी में भी एक सौम्य स्वीकृति है। कोई बेचैनी कोई व्यग्रता नहीं दिखती। अमूर्तता इन कविताओं की एक अन्य विशेषता है जो आकर्षित करती है जैसे कि चौथी कविता।

मैं और तुम की ऐसी परिभाषा भी हो सकती है।
कवि के लिए कविता क्या है ये भी पहली और दूसरी कविता से परिलक्षित हो रहा है। आत्मिय और निजी को सार्वभौमिक आयाम देना ही तो सफल कविता है।
शैली में कभी गुलज़ार भी दिखते हैं। एक निर्दोष साफ़बयानी है।

आरती एक चित्रकार और पेंटर भी हैं। ये बात उनके कवि रूप के साथ अद्भुत तरह से घुल मिल गई है। उनके चित्र मौन नहीं मुखर हैं। दृश्य के अतिरिक्त भी बहुत कुछ कहते हैं।
और उनकी कविताओं से बार-बार दृश्य बंधते हैं। वो सपाट नहीं हैं बल्कि उनके अनेक आयाम हैं।
आरती को शुभकामनाएं देते हुए आशा करती हूं कि वो अन्य विषयों पर भी लिखें। अपना रेंज विस्तृत करें। कुछ लंबी कविताओं में भी कहें। ये बस आत्म साक्षात्कार के हवाले से कहा है। हर कवि की कविता अलग होती है इस बात का भरपूर सम्मान करते हुए इस बात को कहा।


(अपर्णा अनेकवर्णा )




















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समकालीन दौर में कविता का स्वरुप कुछ ऐसा हो गया है जहां आपकी अनुभूतियां बहुत ही गहन रूप में संकेंद्रित होती जा रही हैं । शिल्प में आप बिखराव या कविता की संक्षिप्तता या उसके स्वरूप को लेकर आप कुछ भी बहस कर लीजिये लेकिन इसके बावजूद शब्दों का निहितार्थ एक ही धागे में पिरोया हुआ मिलेगा । आरतीजी की कविताओं के मनके जिस एक ही धागे में पिरोये हुए हैं, वह है उनके अंदर की वह स्त्री, जिसकी प्रज्ञा जागृत है, चेतन है । बाकी विमर्श के बहस-मुबाहिसों को तो आप किनारे ही रख दीजिए । इस एक चेतना के सूत्र ने ही मुझे आरती जी की कविताओं से संपृक्त किया ।

आरती जी की पहली कविता एक ऐसे संवाद की कविता है जिस संवाद में शब्दों को स्वयं अपना निहितार्थ, अपनी वाज़िब पहचान तलाशनी पड़ रही है । यह पहचान की जद्दोजहद केवल शब्दों की नहीं बल्कि उस स्त्री की अनुभूतियों की, उसके संघर्षों की 'अकथ कहानी' है जिसे वह कह नहीं पा रही बस उसे महसूस कर सकती है । एक कुछ बहुत मजबूत अदृश्य बुनावट है, जिसे आप मर्यादा, परंपरा, संस्कार कोई भी नाम दे दें, जो लगातार उसे रोक भी रहा है और भ्रमित भी किये हुए है । इस पहचान की तलाश को लेकर जहां आधी आबादी में सुगबुगाहट तेज़ हुई है, वहीँ उसने बाकी आधे हिस्से को शंकित और बेचैन किया है । इसीलिए उसने चुप रहना ही बेहतर समझा है । इस अनुभूति-प्रकाशन और सोचे-समझे मौन के बीच का द्वंद्व दरअसल हमारे समय की आधी आबादी का द्वंद्व है ।

यह संयोग ही है कि अभी कुछ दिन पहले समकालीन दौर की कनाडा की भारतीय मूल की अंग्रेजी भाषा की कवयित्री रूपी कौर की कुछ कवितायेँ पढ़ने को मिलीं । संयोग से दोनों ही कवयित्रियां रंगों से प्रेम करती हैं । रूपी कौर के कुछ चित्रों को जो की स्त्री के मासिक धर्म से सम्बंधित थे, इंस्टाग्राम से हटा दिया गया था क्योंकि यह समाज के नैतिक मूल्यों के विरुद्ध पाया गया और इस प्रकरण ने एक नयी बहस को जन्म दिया । खैर, उन्हीं की एक कविता को यहाँ उद्धृत कर रहां हूँ -
"I didn't leave because i stopped
loving you i left cause the
longer i stayed the less
i loved myself"

रूपी कौर की कविता की अंतिम दो पंक्तियाँ आरती जी की दूसरी कविता की अंतिम पंक्ति का आलिंगन करते हुए पूरी कविता में निहित सन्देश को स्पष्ट कर देती है -

"कि तुम्हें खुद ही रचना है अपना इतिहास"

स्त्री को एहसास हो चला है कि उसके आत्मसम्मान को सही रूप में ध्वनित करने वाले शब्द कौन से हैं -

"किसी की स्वीकृति पर नहीं निर्भर है तुम्हारा जीवन" (आरती)

और दूसरी तरफ-
"I want to apologize to all the women
i have called pretty.
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from now on i will say things like, you are resilient
Or you are extraordinary
Not because i don't think you're pretty
But because you are so much more than that." (Rupi kaur)

एक दूसरे से हजारों किलोमीटर की दूरी पर होने के बावजूद आप दोनों के भीतर की बुनावट की समानता को भलीभांति देख सकते हैं । मुझे लगता है कि विभिन्न भौगोलिक-सांस्कृतिक परिवेश की समकालीन कवयित्रियों की कविताओं पर एक तुलनात्मक अध्ययन होना चाहिए । इसके नतीजे निःसंदेह बहुत चौंकाने वाले और रोमांचक होंगे । फिलहाल अभी के लिए इतना ही । अंतिम दो कविताओं पर भी लिखने का मन था लेकिन स्वाथ्य साथ नहीं दे रहा तो उस पर आगे जब कभी कुछ कहूंगा तो उसे अलग से टिप्पणी वाले खाने में पोस्ट कर दूंगा । धन्यवाद ।



(रविकृष्ण त्रिपाठी )


















                

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