नवोत्पल गुरुवारीय विमर्श

 


Friday, March 3, 2017

रोहित पत्रकारिता के लिए शहीद हुए: दिनेश अग्रहरि

रोहित पांडेय को यह दुनिया छोड़े 13 दिन हो गए हैं। इन दिनों में तमाम व्यस्तताओं की वजह से रोहित के बारे में कुछ लिख नहीं पाया। पर जब भी घर में अकेला होता, ऐसा लगता जैसे रोहित सामने आकर खड़े हो गए हों। कभी हाथ ऊपर उठाए किसी बात पर बहस करते दिखते, कभी अटल बिहारी वाजपेयी के बोलने की नकल करते। उनकी बिंदास और बेबाक बातें सामने घूमती रहतीं। इन सब वजहों से मुझे एक तरह से बेचैनी सी होने लगी। ऐसा लगा कि रोहित के बारे में वह सब कुछ लिखना चाहिए जो जानता हूं।
रोहित से मेरा परिचय किसने कराया याद नहीं, पर रोहित गोरखपुर विश्वविद्यालय के बीजे पाठ्यक्रम में मेरे सीनियर थे, इसलिए शुरू में उन्हें रोहित भैया कहता था। बाद में जब काशी विद्यापीठ, बनारस में उन्होंने मेरे साथ एमजे किया तो हमारे संबंध प्रगाढ़ होते गए और पता नहीं कब वे रोहित भैया से सिर्फ रोहित हो गए। रोहित को आज भी मैं जिंदगी के अपने सबसे बेहतरीन दोस्तों में से मानता हूं। मेरे दिल्ली के दोस्त मुझे माफ करें, मुझ यह कहने में कोई संकोच नहीं है कि मेरी जिंदगी के सबसे बेहतरीन दोस्त गोरखपुर और मेरे गांव धानी बाजार से हैं या थे। गोरखपुर के दोस्तों में बाद में हमारी एक चौकड़ी बन गई जिसमें मैं, रोहित पांडेय, अमित कुमार और अजय श्रीवास्तव थे। यह वास्तव में विचारों, स्वभावों का मिलन और पेशागत जुड़ाव होने की वजह से था। लेकिन जल्दी ही मैं दिल्ली चला आया जिसकी वजह से मैं इन बेहतरीन दोस्तों से दूर हो गया, पर फोन से उनसे संपर्क बनाए रखने की कोशिश जरूर करता। जब भी गांव जाता हूं तो एक-दो दिन के लिए गोरखपुर जरूर जाता हूं। यह जाना सिर्फ अपने कुछ खास दोस्तों से मिलने के लिए होता है, जिसमें पहले रोहित भी थे।
रोहित पाण्डेय दोस्तों से बात करते हुए 
गोरखपुर पहुंचते ही रोहित को फोन करता, संभव होता तो दिन में उनसे एक बार मिल लेता। फिर वे कहते शाम को आना। कितना भी काम होता, मुझे तसल्ली के लिए कहते-बस एक-दो खबरें हैं जल्दी से निपटा कर ऑफिस से निकल आएंगे। मुझसे भी रहा नहीं जाता और मैं शाम को 7 बजे ही सिविल लाइंस में स्थित दैनिक जागरण और बाद में हिंदुस्तान के ऑफिस पहुंच जाता। मुझे इंतजार करने में भी कोई गुरेज नहीं रहता था। रोहित जब खाली होते तो मेरे साथ बाहर आ जाते, इस बीच फोन करके अजय श्रीवास्तव को भी इंदिरा बाल विहार आने को मैं बोल देता। हम तीनों इंदिरा बाल विहार के सामने एक रेस्टोरेंट में बैठते। वहां कुछ खाने-पीने के साथ ही ढेर सारी बातें होतीं, दिल्ली और गोरखपुर की पत्रकारिता और तमाम अन्य मसलों पर।
गोरखपुर में हमारा एक घर भी है जहां मेरे परिवार के पढ़ाई करने वाले बच्चे रहते हैं, लेकिन अक्सर रात में मैं घर नहीं जाता। वैसे शहर में कई और अच्छे संपन्न दोस्त भी हैं, जिनके यहां खाने और रहने का बेहतरीन इंतजाम होता है, पर वहां भी मैं नहीं जाना चाहता। रात को रोहित के यहां चला जाता। रोहित के साथ उनके एक कमरे के मकान पर रहने का जो सुख था उसे बयान नहीं कर सकता। रोहित के यहां उनके हाथ का बनाया रूखा-सूखा खाना अमृत के जैसा लगता। हमारी बातों का सिलसिला शुरू होता तो उसमें देश-दुनिया की चिंता, राजनीतिक, सामाजिक स्थिति, पत्रकारिता, करियर से लेकर न जाने कहां जाकर खत्म होता। पर इसमें हम दोनों अपने व्यक्तिगत या पारिवारिक जीवन के बारे में बात शायद ही करते। मुझे इस बात का मलाल रहता था कि रोहित को तनख्वाह इतनी कम मिलती है कि वे बेचारे अपना ही खर्च ठीक से नहीं चला सकते तो भाभी और बच्चों को साथ कैसे रखेंगे। उनकी पत्नी और बच्चे गांव पर ही रहते थे। सुबह फिर हम अपने-अपने रास्ते पर निकल जाते। पर रोहित से बात करके ऐसा लगता जैसे मेरा गोरखपुर जाना सार्थक हो गया हो।
रोहित गोरखपुर के बेहतरीन पत्रकारों में से थे। लेकिन क्या गोरखपुर शहर को पता है कि जिन दिनों रोहित पांडेय दैनिक जागरण के स्टार रिपोर्टर थे, उसमें हफ्ते की बात कॉलम लिखते थे, तब उनका वेतन दो हजार रुपए भी नहीं था। रोहित तब भी स्ट्रिंगर थे और करीब दस साल बाद जब वे हिंदुस्तान में काम करते हुए शहीद हो गए तब भी स्ट्रिंगर ही थे और हिंदुस्तान में भी उनका वेतन करीब 3500 रुपए ही था। वे जल्दी ही हिंदुस्तान के स्टार रिपोर्टर हो गए पर उनकी आर्थिक तंगी दूर नहीं हुई। ऐसे में किडनी खराब होना और उसका खर्चीला इलाज। उनके इलाज में तो उनके परिवार का भी सब कुछ बिक चुका होगा। रोहित के लिए शहीद शब्द मैं इसलिए इस्तेमाल कर रहा हूं क्योंकि मुझे लगता है कि रोहित का निधन नहीं हुआ है बल्कि वे पत्रकारिता के लिए शहीद हुए हैं।

उन्होंने पूर्वांचल की पत्रकारिता के उन सामंती जनरलों के लिए काम करते-करते जान दे दिया, जिनकी रोजी-रोटी ऐसे सिपाहियों के बल पर ही चलती है। इन जनरलों के सामंती संस्कार को भी बेगारी करने वाले ऐसे हरवाहे पसंद आते हैं। इन्हीं शहीदों के बल पर ही बड़े-बड़े अखबारों के लिए पूर्वांचल के यूनिट कमाऊ बने हुए हैं। वे वहां से करोड़ों की कमाई कर रहे हैं। आज एक रोहित शहीद हो गए पर न जाने कितने रोहित ऐसे सामंती जनरलों की सेवा में अपनी जिंदगी को दफन कर रहे हैं। मेरी ऐसे साथियों से तो यही गुजारिश है कि भाई कोई और धंधा कर लो, पर इस पत्रकारिता की मृगमरीचिका से दूर रहो। छोटे शहरों एवं गांवों की सामंती पत्रकारिता का जो ढांचा बना हुआ है, उसमें रोहित जैसा कोई ईमानदार आदमी जी ही नहीं सकता। इन पत्रकारों को तनख्वाह भीख जैसी दी जाती है, जो इस बात का संकेत होता है कि भाई गुजारा करना हो तो दलाली करना सीख लो। हां अगर आप किसी माफिया के चंपू हैं या किसी संपादक के रिश्तेदार तो आपकी जिंदगी बेहतर हो सकती है।
लेकिन रोहित किसी और मिट्टी के बने थे। इन तमाम संघर्षों के बावजूद मेरी तरह रोहित भी यह मानते थे कि इस रात की सुबह कभी तो होगी। वे हार मानने वालों में से नहीं थे। अब करीब एक दशक बाद जब मैं भी पत्रकारिता में थोड़ा जम पाया तो मुझे लगता था कि अब रोहित जैसे गोरखपुर के साथी पत्रकारों को भी संघर्ष का फल मिलेगा। पर इसके पहले ही रोहित हमें छोड़ कर चले गए। दिल्ली, मेरठ या कहीं और बैठे अखबारों के अरबपति मालिकों तक इन शहीदों के परिवारों की कराह क्यों नहीं पहुंचती? इन अखबारों ने पूर्वांचल के छोटे शहरों तक आधुनिक मशीनें, मार्केटिंग, विज्ञापन के आधुनिक तौर-तरीके पहुंचा दिए हैं, पर संपादकीय ढांचा, कर्मचारियों की भर्ती करने के सामंती तरीकों को क्यों नहीं बदल पा रहे? इनमें प्रोफेशनलिज्म क्यों नहीं आ पा रहा?
आज भी गोरखपुर के अखबारों में भर्ती में जातिवाद, भाई-भतीजवाद, माफियावाद का बोलबाला है। अगर ऐसा नहीं होता तो आप सोचिए कि दैनिक जागरण, हिंदुस्तान का स्टार रिपोर्टर रहने के बावजूद भी क्या रोहित पांडेय स्ट्रिंगर ही रहते? किसी पत्रकार को स्थायी करने के लिए प्रतिभा और मेहनत के अलावा भला किस चीज की जरूरत होनी चाहिए? इस स्ट्रिंगर शब्द के बहाने ही हिंदुस्तान ने रोहित पांडेय की किसी तरह की मदद करने की संवदेना से मुंह चुरा लिया। गोरखपुर के अखबारों में पत्रकारों की भर्ती कैसे होती है, उनमें तरक्की कैसे मिलती है, किस तरह से पत्रकारों को स्थायी किया जाता है क्या इसके बारे में दिल्ली में बैठे आकाओं ने कोई सिस्टम अपनाया है? अगर यह सामंती व्यवस्था दूर हो गई होती तो कम से कम रोहित पांडेय जिंदगी भर संघर्षरत पत्रकार ही नहीं रहते। अगर उनकी मौत भी हो जाती तो कम से कम वे अपने बच्चों के लिए तो कुछ बंदोबस्त करके जाते।
उस दिन जब विजय शंकर का भोर में फोन आया, तब ही किसी अनहोनी की आशंका हो गयी थी। फिर जब रोहित के बारे में सुना तो अचानक दिल बैठने सा लगा। अपने को संभाला और रोहित के अंतिम संस्कार में जाने के लिए तैयार हुआ। विनोद नगर स्थित रोहित के बड़े भाई के आवास पर पहुंचा तो देखा रोहित के शरीर को पास वाले कमरे में लिटाया गया है। चेहरा ढंका हुआ था। पास जाकर देखने की हिम्मत नहीं हुई। थोड़ी देर बाद किसी जरूरत के लिए उनके चेहरे से चादर हटाया गया तो उठकर गया और हाथ जोड़कर रोहित को प्रणाम किया। रोहित के चेहरे पर बिल्कुल ताज़गी थी। ऐसा लगता है कि दोस्त गहरी नींद में है और थोड़ी देर में उठ जाएगा। पर ऐसा कहां होता है। मेरे कई दोस्त विदेश में हैं, जिनसे मुलाकात हुए सालों हो जाते हैं, पर एक उम्मीद रहती है कि चलो कभी तो मिलेंगे। पर रोहित से मिलने की तो अब कोई उम्मीद नहीं है। रोहित न जानें कहां चले गए हैं।
लेखक दिनेश अग्रहरि आर्थिक पत्रकार हैं.

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