नवोत्पल गुरुवारीय विमर्श

 


Monday, March 20, 2017

#१# दिल की डायरी: मन्नत अरोड़ा

दिल की डायरी:साभार-गूगल 

यूँ ही तो मिले थे हम...!

हादसे हो जाते हैं जिंदगी में, अब सब कुछ अपनी मर्ज़ी या फ़ितरत से हो यह भी तो जरूरी नहीं। मेरे लिए वो एक सिरफिरा या मनचला लड़का ही तो था जो कि मुझे अक्सर नापसंद थे। हैरान थी मैं खुद पे, कि आज मुझे यह क्या हो गया।मैं उसी को ही क्यों देखे जा रही हूँ। दिमाग खराब हो गया लगा मुझे अपना। खुद को गालियां भी दिए जा रही थी कि यह पसंद है तेरी और मुस्कुरा भी रही थी और उसको उसकी शरारतों के साथ देखे भी जा रही थी।
वैसे कई बार टोटली मेमोरी लॉस जैसा हादसा होना भी काफी डेंजरस होता है सेहत के लिए।

उम्र कोई उन्नीस-बीस।अब कुछ उन्नीस-बीस हो भी यह भी जरूरी था क्या??
ग्रेजुएशन लास्ट इयर।रोज़ की मम्मी-पापा की नए- नए शादी के प्रस्तावों की झिक-झिक कि पढ़ के करना क्या है?? लड़कियों को तो बस खाना बनाना ही आना चाहिए। (पंजाबी लड़का भी कोई कहाँ मिलेगा ज्यादा पढ़ा-लिखा। ज्यादातर दसवीं पास और फैमिली बिज़नस में हैं! ) वैसे तो इक्का-दुक्का पे ही अपनी राय देनी पड़ती क्योंकि ज्यादातर तो पापा ही नामंजूर कर देते थे। बाकियों को मैं। फिर मम्मी का रोज़ बुड़-बड़ाना कि फलां की शादी  साल पहले ही हो गई,ताड़ जितनी लम्बी हो गई है वगैरा। पापा का समझाना कि लम्बी हाइट होना कोई बुरी बात भी नहीं है।अब अपने माँ-बाप पे ही तो जायेगी न।अब इस से शादी थोड़े न कर दूं। मुझे भी सबसे ज्यादा ख़ुशी रिश्ता कैंसिल करके ही मिलती थी।

अब कुछ इसी बेकार की और भी अपनी ही तरह की कुछ और टेंशन्स के साथ मुझे एक पारिवारिक पार्टी में जाना था। मूड बिलकुल भी नहीं था। सब लोग जा चुके थे। एक छोटा सा get-together था जिसमें कुछ करीबी दोस्त या रिश्तेदार गिने-चुने ही invited थे। मैंने भी अपनी trousers चुनी और एक वाइट टॉप के साथ पहन ली कि मेरे को वहां किसने देखना है। बड़ी ही कांफिडेंटली उतरी और सीढ़ियों से होते हुए एक रूम जो होटल में पार्टी के लिए बुक था पहुंची।

कमरे का दरवाज़ा अधखुला सा था। मैंने जैसे ही खोला जल्दी से, सामने से वो भी बाहर आने की जल्दी में मेरे एक-दम सामने। लगभग टकराते हुए ही बची थी। जानती तो थी दूर- दूर से।पर कभी कोई बात हुई ही नहीं थी। मेरे पैर लड़खड़ाये,किसी तरह बैलेंस किया मैंने भी और उसने भी और मैं उलटे-पैर फिर वापिस भाग ली नीचे सीढ़ियों की ओर कि अब वापिस ही नहीं आउंगी। इसी दौरान आँखें भी मिली और मुस्कुराहटें खिली।
पर यह भी क्या बात हुई_दरवाज़े पे ही दोस्तों के साथ खड़े हो लो। कोई जा भी न पाये।आवारा सब के सब। बीच में चाहे मेरे cousins भी थे। पर चूँकि पंजाबी लड़के हों या आदमी, सबने दो दो पेग लगाये ही होते हैं हर छोटी से छोटी पार्टी में;तो होश में कौन-कितना, ख़बर कहाँ। परेशानी भी कि सब लोग पूछेंगे कि कहाँ थी तो क्या जवाब दूँगी। दो-चार सीढ़ियां रहते ही कुछ और रिश्तेदार दिख गए ऊपर आते हुए। इतनी तेज़ धड़कनों के साथ कुछ तो होंसला हुआ कि इनके साथ एंट्री करती हूँ।अब जाना तो पड़ना ही था। 

(क्रमशः )
मन्नत अरोड़ा 


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