नवोत्पल गुरुवारीय विमर्श

 


Thursday, April 6, 2017

#22# साप्ताहिक चयन: 'उम्मीदों के शब्द' / *विवेक कुमार'

डॉ. विवेक कुमार
अर्थ को शब्द का सहारा तो चाहिए ही. इस सहारे के खतरे को उठाने के बाद भी शब्द अपरिहार्य तो हैं ही. कोई इन खतरों का फायदा उठा लेने की फिराक में है. नारे गढ़कर वो विकास को कभी पानी बनाकर घर के रसोई तक पहुँचाने का वादा करता है तो कभी नौकरी के नारे गुंजा कर युवाओं पर दांव लगाता है. वो दूर बैठा अट्टहास कर सत्ता की सीढियां चढ़ता है जिनपर भीड़ का उन्मादी शोर गलीचा बन बिछा होता है. इस शातिरपने से शब्द भी अछूते नहीं रहे. अंग्रेजी साहित्य के प्रोफ़ेसर डॉ. विवेक कुमार जी की कविता 'उम्मीदों के शब्द' इस सप्ताह की चयनित प्रविष्टि है. बेहद कम शब्दों में गहरा वितान खड़ा कर दिया है विवेक कुमार जी ने. 

"प्रेमिका और पोएट्री को प्यार अकेले में किया जाता है ।इतना अकेले में और ख़ामोशी से कि दोनों की संगति पूरे व्यक्तित्व को बदल दे और ज़माने को न प्रेमिका दिखे न पोएट्री । दिखे बस बदलाव !"                                                                                                     (डॉ. कमलाकांत यादव)

आदरणीय डॉ. कमलाकांत यादव जी साहित्य के गहरे परखी और निराले रसिक हैं. साहित्य के समुद्र में गहरे पैठ
दर्शन, इतिहास, समाज, संस्कृति सभी के मोती बटोर लेते हैं. आप कागज-कलम और चाक-मार्कर के कर्मठी तो हैं ही, अनगिन सरोकारों से बंधे कुछ यों है कि इन्हें अपनी भी सुध नहीं रहती. इस कविता पर आपकी बहुमूल्य टिप्पणी कविता और कवि का मान बढ़ाती लग रही है.                                                                      (डॉ. श्रीश)


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उम्मीदों के शब्द



साभार:लोंग्बारो ब्लॉग 
आसमान की ओर देखता

वो चार दाने बीज के


बो देता है


इस उम्मीद से


कि जब बारिश होगी

तो वो अंकुरित होगा


और बता पायेगा


उन शब्दों के  मायने


जो समय के साथ 


बदल गये हैं


इस पथरीली जमीन पर। 


( विवेक कुमार)

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इस टीप को लिखते हुए किसी कविता पर मौखिक रूप से अपनी बात रखने और लिखित रूप से कहने के के बीच के अंतर को महसूस किया । विवेक कुमार की कविता" उम्मीदों के शब्द " पर अपनी बात रखूँ ,इससे पहले कविता को लेकर अपनी समझ पर दो शब्द ।आखिर कविता है क्या ? कवि के द्वारा रचा गया एक अनुभव ! शायद हाँ ।और,जब यह अनुभव कवि के अतिरिक्त पाठक की अनुभूति का भी हिस्सा बन जाता है तो उसे अर्थ विस्तार मिलता है ।एक समझ निर्मित होती है-अपने वृहत्तर परिवेश को देखने की ।कविता के लिखे जाने और पढ़े जाने के मेरे लिए इतने ही मायने हैं ।अस्तु।

अब बात करते हैं 'उम्मीदों के शब्द' पर ।इस कविता के भीतर जो है उसे छूने के लिए बाहर के प्रकाश की आवश्यकता है ।लेकिन,बाहर बहुत शोर गुल है ।मन थिर नहीं हो पा रहा कि कविता के कवि को खोजें ।कवि को खोजे बिना कविता को पढ़ने पर उसका सत्  उसकी स्प्रिट एक संदिग्ध सत्य बनकर रह जाएगी ।

इस छोटी सी कविता केंद्र में इस शताब्दी का सबसे बड़ा संकट है ।सब नष्ट हो रहा है ।बचाने की आवश्यकता है ।हम एक ऐसे समय में जी रहें हैं जहाँ कवि एवं कलाकार की मानसिक धरातल पर बाज़ार और सत्ता प्रतिष्ठानों से दूरी बढ़ी है ।बढ़ाई गयी है । कविता की आरंभिक पंक्ति है- 'आसमान की ओर देखता' ।सवाल है -क्यों ? 

पचास पचपन साल पहले मुक्तिबोध द्वारा लिखी गयी प्रसिद्द कविता 'भूल -गलती' का अंतिम पैराग्राफ है-

मुहैया करा रहा लश्कर;
हमारी हार का बदला चुकाने आएगा
संकल्पधर्मा चेतना का रक्तप्लावित स्वर
हमारे ही ह्रदय का गुप्त स्वर्णाक्षर
प्रकट होकर विकट हो जाएगा !!


60 के दशक में कविता के माध्यम से व्यक्त संघर्ष को बाजार और सत्ता की नाभिनालबद्ध जोड़ी ने तोड़ा है ।किन्तु, आज भी रचनाकार को उम्मीद है 'जब बारिश होगी/तो वो अंकुरित होगा।' क्योंकि,हार के भय से मैदान तो नहीं छोड़ा जा सकता -'वो चार दाने बीज के बो देता है'। 

समस्या इस देश की माटी और उससे उपजे लोकतंत्र में है ।यहाँ चाहे खेती हो या बदलाव सब मानसून के भरोसे ही रहते आए हैं ।इस देश की कई पीढ़ियों ने यही उम्मीद रखी है कि'जब बारिश होगी/तो वह अंकुरित होगा/और बता पाएगा/उन शब्दों के मायने ।' 

अब सवाल यह है कि बारिश कैसे होगी ? विचार की जरुरत यहाँ है ।जमीन का ऊपजाऊ या पथरीला होना अपनी नियत से ज्यादा अपने स्टैंड पर निर्भर करता है ।अगर आपके हिस्से में(बहुसंख्यक के हिस्से में) पथरीली जमीन है तो उसे तोड़ने में समस्या क्या है ? क्या अब उन औजारों को गढ़ने की आवश्यकता नहीं है जिनसे यह बंजर और पथरीली जमीन टूटे और हमारी मानसून पर निर्भरता कम हो ? 

(कमलाकांत यादव)   


                

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