जैसे बरसों से इंसान तरसा हो और मोबाइल फोन ने सहसा बतियाने का मौका दे दिया बेशुमार l उम्मीद थी कि लोग पास आयेंगे, दूरी बस एक मिथ बनकर रह जायेगी और लोग सामाजिकता और मानवता के नए सोपान चढ़ जायेंगे पर अब निजी स्पेस होने लगे हैं, प्राइवेसी की दरकार उन्हें भी है अब जिसे कक्षा में सामूहिकता की नींव पर शिक्षित होना होता है l मकानों में कमरे पहले भी थे, कमरों में फाटकों पर सिटकनियाँ पहले भी होती थीं पर अब अब अपने-अपने रूम हैं और उनका जब तब लॉक्ड होना सभ्यता का एक सहज पायदान पर होना समझा जाता है l मोबाइल फोन ने इंसानों को इम्मोबाइल कर दिया, इसकी स्मार्टनेस ने बांध लिया है हमें और हम ठूंठ ताले बनते जा रहे जिसकी कुंजी इसके कीपैड में समा गयी है, कहीं l
कितना कुछ अनटच्ड रह जाता है, टचस्क्रीन मोहब्बतों के दौर में l
फिर भी इंसान एक जिंदा शै है, उसकी जरूरतों की जिंदा वज़हें हैं l मोबाइल फ़ोन की सुर लय ताल पर ही सही पर भावनाएं बहती तो हैं, मन की सेल्फी पर किसी की लाइक का इंतज़ार रहता तो है l सहसा कनेक्ट हो उम्मीदें ट्रांसफर होने लग जाती हैं, दिल के टावर्स यहाँ वहाँ के सिग्नल पकड़ चैट में मशगूल हो अरमानों की डीपी बदलते रहते ही हैं l यों चलता रहता है, मन डरता रहता है, स्माइलीज से मुस्कान आ पाती तो सपने टूटने का डर वर्चुअल स्पेस से बाहर ना रिसता l
राजलक्ष्मी शर्मा |
लोकप्रिय कवयित्री राजलक्ष्मी शर्मा जी की कविता 'फोन की ट्रिन ट्रिन' नए दौर के एहसासों की कविता है l फोन जो अब हरफनमौला है उससे गुजरते मोहब्बतों के सिलसिले संजोने भर लायक उभर ही आते हैं जब तब, इसकी पड़ताल करती शानदार कविता. आज का समय, आज के पारस्परिक रिश्ते, धुंधले आकाश का चाँद, मटमैले टिमटिमाते तारे और इन सब के बीच पनपता कोमल प्रेम, इन सबको यों समेटना बेहतरीन है l
आपकी कविता पर टिप्पणी का योग किया है बहुमुखी प्रतिभा के धनी अभिषेक आर्जव जी ने l आर्जव अपने प्रशिक्षण में अक्षरविज्ञानी हैं पर चिंतनशील कोमल कवितायेँ लिखते हैं, अद्भुत यात्रावृत्तांत लिखते हैं, सूक्ष्म सौन्दर्य को उकेरती फोटोग्राफी भी करते हैं l
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फोन की ट्रिन ट्रिन
Source:Google Image |
तुम्हारे फोन की ट्रिन ट्रिन से
सुपरसोनिक स्पीड से गिरने लगते हैं ग्राफिक्स
और मेरे कमरे की सुफेद छत में
उग आता है एक आकाश
मैं तुम्हारी बाँहों मे लेट कर
दिखाती हूँ सप्तऋषि
तुम समझाते हो चाँद का घटना बढ़ना
सिर्फ एक ट्रिन ट्रिन
और छत का पंखा
कहीं से ले आता है बसंती बयार
दूर से बजती बांसुरी और मंदिर की आवाज़
मैं मन्त्रमुग्ध सी बैठ जाती हूँ
एक चट्टान पर
तुम खाली कैनवास मे उकेरते हो मेरा पोर्ट्रेट
किसी सुबह हम दोनो ढूंढने लगते हैं मेरी गुम इयरिंग
फोन पर बनता रहता है
एक काल्पनिक घर कमरे और बहुत सी ड्रॉर्स वाली अलमीरा के
ग्राफिक
मैं विजुआलाइज़ करते हुए खंगालती हूँ हर मुमकिन जगह
और मेरी इयरिंग मिलती है तुम्हारे टी शर्ट पे रहस्मय तरीके
से
हम रोज़ नया घर बनाते हैं
अपने बच्चों को खेलता देखते हैं
उनके नाम रखने के लिये बहस करते है
और सहमत हो जाते हैं एक नाम के लिये
फोन पर ही शुरू रहती है
दूध की बॉटल से नैपी बदलने की कवायद
जब हम नही होते पास तो बदल देते हैं अपने काल्पनिक घर का इंटीरियर
बेड रूम मे उगा होता है
प्राकृतिक रूप से एक विशालकाय पेड़
कभी बिस्तर लगा होता है दूब से भरे बगीचे मे
सफेद चादरों मे हम चुप चाप निहारते हैं आकाश गंगा
तुम कभी नही टोकते मुझे
मैं पूरी होने देती हूँ तुम्हारी हर ख्वाहिश
कितना सुंदर है हमारा साथ
मै काल्पनिक दहलीज में बांधती हूँ नीबू मिर्च
फोन की ट्रिन ट्रिन
और तुम आ जाते हो नॉडी के प्लेन मे
हम पहुंच जाते है गर्मियों मे अपने कश्मीर वाले घर मे
ठंड मे हमारा एक अलग ही डेस्टिनेशन होता है
वर्षा वन मे बना ट्री हाउस
कभी कभी रेगिस्तान की उस बड़ी चट्टान मे भी जाते हैं
जहां तुम अक्सर जाते थे जब हम मिले नही थे
वो रात भूलती नही जब हमने एक जमी हुई झील के किनारे बने
सफेद टेंट मे रात गुजारी थी
और वो पूरनमासी की रात
जब तुम ले आये थे चम चम करते हैदराबादी कंगन
और फिर हम घूमते रहे चाँद के साये तले भोर तीन बजे तक
जब ट्रिन ट्रिन नही होती तो हम लिखते हैं एक दूसरे को
चिट्ठियां
जिसमे मिस यू के अलावा कोई जुमला नही होता
हमारी टाइमिंग ग्राफिक और विसुअलाइज़शन इतने परफेक्ट पहुंचते
हैं
जैसे कोई मिरर इमेज
सुनो !
ऐसे ही रहना हमेशा
कि देख कर ,मिल कर ,छू कर अक्सर सपने टूट जाते हैं.
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''ऐसे ही रहना हमेशा'' कहकर कवि ने
बड़े ही सटीक ढंग से
" हमेशा ऐसे
न रह पाने" की व्यथा को पंक्ति दी है।
प्रेम के तिनका तिनका सुन्दर
पलों को अन्तहीन कर लेने की एक गहरी चाह हर उस मन की अभीप्सा रहती है जिसने नेह
अमृत बूंद बूंद छक कर पिया है | अनन्त आनन्द की यह प्रत्याशा प्रेम के उच्च धरातल
पर और भी प्रगाढ़ हो जाती है। मन अवचेतन स्तर पर बिना किसी सदिश प्रयास के ही सत्
चित् आनन्दकी अपनी मूल किन्तु भूली बिसरी अवस्था का क्षणिक आस्वादन करता है। लेकिन
जैसा कि रोबर्ट ब्राउनिंग ने अपनी इस कविता में कहा है, एक प्रेमी कवि के लिए यह अमृत क्षण बहुत ही छोटा होता है:
“I
kiss your cheek,
Catch
your soul's warmth,—I pluck the rose
And
love it more than tongue can speak—
Then
the good minute goes.”
यह कविता प्रेम के उसी छोटे से पल में उलझी हुयी है जॊ बहुत
मीठा है, लेकिन बहुत जल्दी बीत गया है l
’’जहां तुम अक्सर आते थे जब हम नहीं मिले थे”
वह मिलने व फिर साथ न होने के बीच का जो समय व स्थान है वही
इस कविता की भाव भूमि को पोषित करता है l झील के किनारे सफेद टेंट में गुजरी पूरनमासी
की वह रात प्रेम की प्रकिया में बस एक परिघटना नहीं थी, वह प्रेम के प्रगाढ़ रहस्य लोक का मंगलमय उद्घाटन
थी जिसमें विचरकर मन-प्राण ने अपने प्रेम को सदा उर्जित रख पाने के लिए कई गूढ़
अकथसूत्र खोज लिये हैं l इन्हीं गूढ़ रहस्यों
के सम्बल पर वर्तमान कविता ‘And then the good minutes goes...' या ’देखकर मिलकर
छूकर अक्सर सपने टूट जाते हैं’……के भाव को
एक इतर ढंग से देखने का प्रयास करती है।
सपनों के टूट जाने की अनिवार्यता को समझते
हुये भी , इस अनिवार्यता से ग्रसित हुये बिना , प्रेम की क्षणिकता के सम्मुख निरीह समर्पण के बजाय कविता यह सिद्ध करने का
प्रयास करती है कि गहरे प्रेम का एक लघु
किन्तु पूर्ण क्षण स्वयं में इतना तृप्त कर देनेवाला होता है कि मानव अस्तित्व कुछ
पल के लिए अपनी भौतिक सीमाएं भूलकर अपनी नश्वरता के बिखराव में एक प्रेमिल सातत्य
का स्वप्न रचता है। यह कविता यह बताती है कि वह रचा गया स्वप्न दैनिक जीवन के अनेकानेक
निष्प्रभ जागतिक यथार्थ के प्रतिपक्ष में मजबूती से खड़ा हो सकता है। अन्तरात्मा
में जीजिविषा का संचार कर सकता है।
अन्तिम
पंक्तियों के ‘’सुनों !” सम्बोधन में जिस अपनाने की अनुगूंज है वह ‘सपनों के
टूटने' के कर्कश शोर से कहीं मधुर व व्यापक है। वह उतना ही व्यापक है जितना फोन की
टि्रन टि्रन से उग आया आकाश या छत के पंखे से हुलसती बसंती बयार।
“बाँहों
मे लेट कर सप्तऋषि देखना, चांद
का घटना बढ़ना, दूर
बजती बांसुरी, आकाशगंगा
को निहारना, पूरनमासी
की रात जहां एकतरफ ओस की बूंद जैसे मृदु, स्वपनिल
व अकिंचन प्रेम की भंगिमा रचते हैं, वही
बच्चों को खेलता देखना वर्णित प्रेम के फलक को इस हद तक विस्तृत करते हैं कि कल्पना
व यथार्थ के बीच की रेखा मद्धम पड़ जाती है.
हालाकि
एक दूसरे के लिए लिखे गये पत्रों में मिस यू के अलावा कुछ और नहीं होता किन्तु कवयित्री
प्रेम का एकाकी व विच्छिन्न स्वरूप रचने के बजाय एक ऐसे प्रेमलोक का सृजन करती हैं
जिसमें खोयी हुयी ईअररिंग के टिशर्ट पर मिलने के बाद दूध की बाटल से नैपी बदलने तक
की कवायद भी शामिल है.
सर्वेश्वर
दयाल सक्सेना जी की एक कविता की कुछ पंक्तियां हैं…:
"शब्दों की खोज शुरु होते ही
हम एक-दूसरे को
खोने लगते हैं
और उनके पकड़ में आते ही
एक-दूसरे के
हाथों से
मछली की तरह फिसल जाते हैं ।
हर जानकारी में बहुत गहरे
ऊब का एक पतला धागा छिपा होता है,
कुछ भी ठीक से जान लेना
खुद से दुश्मनी ठान लेना है ।"
कह सकते है कि यह कविता जानकारी में छिपे ऊब के धागे को अपने
प्रेम संसार से बहुत दूर फेंककर अपने प्रेम को जस का तस बनाये रखने की एक पीठिका है. भाषा के स्तर पर बहुत से प्रयोग हमें गुलजार व अमृता प्रीतम की भाषिक व बिम्ब
शैली की याद दिलाते हैं. अभिव्यक्ति
प्रभावपूर्ण है.
अभिषेक 'आर्जव' |
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