नवोत्पल गुरुवारीय विमर्श

 


Friday, May 19, 2017

जीवित जातियाँ वहीं हैं जो आधुनिकता का प्रतिनिधित्व करती हैं; अपने आज के जीवन में जीती हैं।

आचार्य चतुरसेन शास्त्री हिंदी साहित्य के महत्वपूर्ण गौरव नक्षत्र हैं l आपका जन्म २६ अगस्त १८९१ को उत्तर प्रदेश के बुलंदशहर में हुआ था l आपका लेखन किन्ही ख़ास विधा में बांधा नहीं जा सकता किन्तु इतिहास की पृष्ठभूमि के उपन्यास लेखन में कोई आपके आस-पास भी नहीं l लगभग पचास वर्ष के साहित्यिक जीवन में लगभग हर विधा पर शास्त्री जी ने कलम चलाई l साढ़े चार सौ से अधिक कहानियां लिखीं l आप ख्यातलब्ध  चिकित्सक भी रहे और आयुर्वेद पर दर्जनों ग्रन्थ लिखे l गोलीसोमनाथवयं रक्षाम: और वैशाली की नगरवधू इत्यादि आपकी प्रमुख कृतियाँ हैं जो शास्त्री जी को कालजयी साहित्यकार बनाते हैं l 


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बहुत दिन हुए, संभवतः यह सन 1910-1911 की या इससे कुछ पहले की बात है कि उन दिनों मैं जयपुर संस्कृति कालेज में पढ़ता था। अवस्था उन्नीस-बीस वर्ष की होगी। तभी जयपुर के राजा माधोसिंह का देहांत हो गया। तभी मैंने देखा कि सिपाहियों के झुंड के साथ नाइयों की टोली बाजार-बाजार, गली-गली घूम रही थी। वे राह चलते लोगों को जबरदस्ती पकड़कर सड़क पर बैठा अत्यंत अपमानपूर्वक उसकी पगड़ी एक ओर फेंक सिर मूँड़ते थे, दाढ़ी-मूँछ साफ कर डालते थे। मेरे अड़ोस-पड़ोस में जो भद्र जन थे उन्होंने स्वेच्छा से सिर मुँड़ाए थे। अजब समाँ था, जिसे देखो सिर मुँड़ाए आ जा रहा था। यह देख मेरा मन विद्रोह से भर उठा। मेरी अवस्था कम थी, दाढ़ी-मूँछें नाम की ही थीं। सिर पर लंबे बाल अवश्य थे, पर उन पर मेरा कुछ ऐसा मोह न था। फिर भी जबरदस्ती सिर मुँड़ाने के क्या माने। परंतु लोगों ने मुझे डरा दिया। बाहर निकलोगे तो जबरदस्ती मूँड़ दिए जाओगे। छिपकर बैठोगे और पुलिस को पता लगा तो पकड़ ले जाएँगे, राजद्रोह में जेल में ठेल देंगे। परंतु ज्यों-ज्यों इस जोर-जुल्म की व्याख्या होती थी, मेरे तरुण रक्त की एक-एक बूँद विद्रोही हो उठती थी। मैंने निश्चय किया, सिर कटाना मंजूर है, पर सिर मुँड़ाना नहीं। मैं दिन भर घर में छिपा बैठा रहा। पकड़ने का भय तो था ही। बहुत लोग घरों से पकड़े जाकर मूँड़े जा रहे थे। मुझे किसी अपरिचित के आने की जरा भी आहट मिलती मैं पाखाने में जा छिपता। अंत में रात आई और मैं किसी तरह घर से बाहर निकलकर ‍अँधेरी रात में जंगल की ओर चल पड़ा। जयपुर के जंगल में। शहरपनाह के बाहर ही शेर लगते थे। सन '10 का जयपुर आज का जयपुर थोड़े ही था। मेरा इरादा अजमेर भाग जाने का था, पर स्टेशन पर पकड़े जाने का भय था। अतः आगे बढ़कर एक छोटे स्टेशन से रेल पकड़ी और 15 दिन बाद जयपुर लौटा। फिर भी डर था। 15 दिन में इतने बड़े बाल कैसे हो गए, किसी ने पूछा तो क्या जवाब दूँगा।

यह हुई आपबीती। अब लोकोक्ति सुनिए। किसी रियासत में गांधर्वसेन मर गए। कुम्हार ने सिर मुँड़ाया तो राजा तक दरबारी मुँड़ाते चले गए। पीछे पता लगा कि वह कुम्हार का गधा था।

जीवित जातियाँ वहीं हैं जो आधुनिकता का प्रतिनिधित्व करती हैं; अपने आज के जीवन में जीती हैं।


(आचार्य चतुरसेन शास्त्री )

(निबंध- 'धर्म और पाप' साभार: हिंदी समय)


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