नवोत्पल गुरुवारीय विमर्श

 


Saturday, May 27, 2017

साहित्य के प्रतिमान नदी के किनारे हैं- राजेन्द्र रंजन चतुर्वेदी




किनारे नदी को नहीं बनाते !
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लोक बडा निर्भय होता है , वह किसी भी थोपे हुए विचार को स्वीकार नहीं करता , भले ही वह विचार अमेरिका, रूस या इंग्लैंड से आयात किया हुआ ही क्यों न हो !

लोकधर्मी- साहित्य सत्ता और साधनों का मोहताज नहीं होता , वह निर्भय होकर हर प्रकार की संकीर्णता और दायरों का निषेध करता है ,उन्हें चुनौती देता है।

लोकधर्मी- साहित्य पहले से गढे-गढाये समीक्षाशास्त्र के प्रतिमानों के पीछे नहीं चलता ,स्वयं समीक्षाशास्त्र ही उनके पीछे चलता है ।

साहित्य के प्रतिमान नदी के किनारे हैं ।

किनारे नदी को नहीं बनाते ,स्वयं नदी ही बहती है तो किनारे बन जाते हैं। साहित्य के वे प्रतिमान, जिनकी दृष्टि अपने और अपने परिवेश के दायरे से बाहर नहीं जाती , वे हर बार नदी की बाढ में बह जाते हैं।

व्यास, वाल्मीकि, सूर, मीरा, कबीर, तुलसी , नानक, रैदास, नरसी की लोकधर्मी-कविता तो आज भी जीवित है






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