शोषण की इंतिहा प्रतिरोध के अनन्य विधाएं आविष्कृत करती रही है l शहर या गाँव का विभाजन इसमें आड़े नहीं आता l यह सर्वकालिक व सर्वव्यापक है l धर्म ने थककर अपने उमर भर की कमाई राजनीति को सौपीं और नए जमाने ने ढूंढ लिए नए तरीके पुराने शोषणों को जारी रखने के l तो यह स्पर्धा चलती जाती है, जबतब किरदार बदलते-ढलते जाते हैं l
नवोत्पल साहित्यिक चयन की तीसवीं प्रविष्टि एक विशिष्ट प्रविष्टि है सो शायक आलोक जी से आग्रह किया गया और उन्होंने नवोत्पल को शुभकामनाएं प्रेषित करते हुए अपनी एक प्रिय कविता 'जामुन का भूत ' प्रेषित की l आप समकालीन युवा हिंदी कविता के सर्वाधिक चमकते सितारों में से हैं जिनकी कविता वह कहने से कभी नहीं चुकती जिस हेतु वह आकार पाती है l इस कविता पर यों तो हमें लोकप्रिय कलमकार आलोक झा जी की सुचिंतित विस्तृत टिप्पणी सस्नेह मिली है किन्तु अपनी इस कविता पर शायक स्वयं कुछ यों लिखते हैं :
शायक आलोक |
आलोक झा जी की सहज टीप इस कविता को अन्य उपयोगी विमाओं से देखती-परखती है और ऐसी कवितायें जिस वैकुअम को भरती हैं उस आधारभूमि की समानांतर विमर्शों तक अपनी टीप से उसे सहज संस्पर्श करा रहे हैं l
साभार हिंदी कला |
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किसी गाँव में जब गोबर नाम का दलित मरा तो भूत हो गया
तो वह भूत रहने लगा उसी गाँव के बँसवारी में
पहलेपहल तो यह बात कानी बुढ़िया ने कही और
फिर किस्से शुरू हो गए.
एक दिन जब गोबर ने उठा पटक मारा बगल गाँव के सुखला साहूकार को
और उसका बटुआ भी छीन लिया तब तो बड़ा हंगामा हुआ
सुखला का गमछा पाया गया गाँव से दो कोस दूर
ऐसा बिछा हुआ जैसे गोबर ही उस पर सुस्ताने दो दम मारा हो.
तो तय यह पाया गया कि हाथ पैर जोड़ कर बुला लिया जाय रामनारायण पंडित को
और खूब जोर से कच्चे धागे से बंधवा दिया जाए उस नासपीटे जामुन को
जामुन जो बँसवारी का अकेला ऐसा पेड़ था जो बांस नहीं था.
लेकिन उसी रोज रात में घटी एक और घटना
'न देखा न सुना' - कहती है रामजपन की माई भी
बिशो सिंह के दरवाजे सत्तनारायण संपन्न करा के लौट रहे रामनारायण पंडित को
बँसवारी के आगे धर दबोचा गोबर ने
और ऐसा भूत मन्त्र मारा कि गूंगे हो गए बेचारे
बोलते हैं तो सिर्फ चक्की के घिर्र घिर्र की आवाज़ आती है.
कहते हैं कि गोबर के दोमुंहे पुराने घर थी ऐसी ही एक चक्की जो
उसके बाप ने अपने बाप के श्राद्ध में रामनारायण को गिरवी बेचा था.
खैर जामुन के भूत को बाँध दिया गया और गोबर से शांत रहने की प्रार्थना की गई.
गोबर जो पूरी ज़िन्दगी दो जून की रोटी की फिक्र में रहा उसका भूत
हर शनिवार को खाता है बताशे
कभी भूख बढ़ने पर जन्मते ही खा जाता है मवेशियों के बच्चे
अपने साथी भूतों के भोज के लिए एक दिन जला डाला मुर्गों का दड़बा
चबाई हड्डियाँ डोभे में फेंक दी.
गोबर के भूत ने न्याय भी लाया है गाँव में
मुंह अँधेरे अब शौच जाने से नहीं डरती चंपा
हर महीने सरसतिया के जिस्म पर आने वाला भूत अब नहीं आता
गुनगुनाते हुए बड़े दालान से गुजर लेती है अठोतरी.
सुना है गोबर अन्य भूतों संग रोज रात को बँसवारी में करता है बैठकें
हंसने और जोर जोर से बतियाने की आवाज़ आती है.
टीवी पर जब से आई है गोबर की कहानी
सरकार फिक्रमंद है आम जान माल को लेकर
भूतों की सत्ता चुनौती है सरकार के लिए
इसलिए सेना निपटेगी उनसे लोकसभा चुनाव के पहले पहल.
मज़े में जी रहे जामुन के भूत को दूसरा जामुन ढूंढना होगा.
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शायक
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आलोक झा |
कविता जो अगला अर्थ खोलती है वह हमें उस संघर्ष
की ओर ले जाता है जो अब जाकर संघर्ष का रूप ले पाया है । इससे पहले एकतरफा दादागिरी
के खिलाफ इक्का – दुक्का कोई दास्तान हो तो हो वरना सवर्णों की हिंसा या धनिकों की
हिंसा या कई मामलों में दोनों ही प्रकार की हिंसा के खिलाफ संघर्ष तो दूर खड़े होने
की बात भी नहीं आ पाती थी । अब एक बार को यह डर हो भी कि सामने वाला पक्ष सामाजिक
और आर्थिक रूप से मजबूत है तो भी प्रतिकार किया जाता है । और अब सब सहकर सहम जाना
नहीं बल्कि उसके खिलाफ संघर्ष करना केंद्र में आ गया है । यह संघर्ष हमेशा भौतिक
हो जरूरी नहीं । हमला सामने वाले के दिमाग पर कर रहा है गोबर का भूत ।
फर्ज़ करिए कि गोबर मरा ही नहीं । जिंदा है ! अब
जो स्थिति बनती है वह ज्यादा रोमांचकारी और मजबूत है । गोबर रोबिनहूड़ है और
वंचितों के न्याय का वाहक है । इस तरह संघर्ष का नया आयाम खुलता है जहाँ गुरिल्ला
पद्धति का संघर्ष है जो भौतिक स्तर पर भी लड़ा जा रहा है । समय की जरूरत यह भी है ।
पूरी
कविता गोबर के भूत के इस्तेमाल की है । कहीं यह प्रयोग है तो कहीं खालिस इस्तेमाल
। ऊपर हम प्रयोग पर काफी बात कर चुके अब बात इस भूत के इस्तेमाल की । इस भूत ने
थोड़े ही समय में जो न्याय की दशा ला दी है वह अन्यायियों के लिए चिंता की बात है ।
भारतीय समाज में जो सत्ता – सवर्ण – धनिकों का नेक्सस है उसके लिए यह बहुत बुरी
खबर है कि न्याय की बात हो ,
अपराधियों को दंड मिले । इस नेक्सस के लिए तो अपराधी वे हैं जो इसके खिलाफ है । तो
इस लिहाज से गोबर का भूत अपराधी है । टीवी के लिए भी गोबर का भूत अपराधी है और इस
अपराधी को सरकार कि नजर में या कहें कि उस नेक्सस की नज़र में लाने का जो काम टीवी
ने किया वह भी गोबर के इस्तेमाल की श्रेणी मे आता है । अब सरकार भी गोबर के भूत का
इस्तेमाल ही करेगी अपने नेक्सस को बचाने के लिए । क्योंकि सामाजिक न्याय यदि मिलने
लगे तो यह सरकार के लिए सीधी चुनौती होगी ।
डर
की सत्ता है । गोबर के भूत को बनाने वाले ने अपने डर को सामने वाले पर उतार दिया ।
अब सभी पक्षों की नज़र में गोबर नहीं बल्कि उसका भूत है जो इनसे मानसिक रूप से
मजबूत है । लेकिन सत्ताएँ और उससे जुड़ी चीजें भूत से नहीं डरती ,
किसी भी ऐसे व्यक्ति से भी नहीं डरती जो अकेले उनके खिलाफ संघर्ष करता है । इसलिए
संघर्ष लगातार एक जगह बना नहीं रह पाता गोबर के भूत की तरह । उसे भागा दिया जाता
है । इस तरह से कविता उस संघर्ष की मजबूरी का उदाहरण है जो बहुत क्षमताशील होते
हुए भी सत्ता के दमन के आगे ज्यादा देर टिक नहीं पाती । इस कविता के प्रतीकों और
उदाहरणों से बिलकुल अलग जाते हुए ऐसे उदाहरण आज के भारत में कई देखने को मिल जाते
हैं जहाँ सत्ता का दमन संघर्ष को घुटने टेकने या अपनी धार को खुद कुंद कर देने पर
मजबूर कर देता है !
कविता
अपनी शुरुआत में विद्रोह का एक वातावरण लेकर आती है जो रोमांच पैदा करता है । कविता
में वह विद्रोह को लोगों में भरने के बजाय लोगों से अलग हो जाता है । वह सबका
विद्रोह न होकर एक खास का ही विद्रोह रह जाता है । कविता का पहला ही वाक्य कहता है
कि गोबर दलित था और उसका उसका विरोध हर तरह की हिंसा के खिलाफ था । लेकिन गौर से
देखा जाये तो न तो सारे दलित भूत हुए न ही उन्होने विद्रोह के प्रतीक को ही अपनाया
। बल्कि एक कदम आगे बढ़कर उन्होने ही भूत को जामुन पर बांध दिया । यह स्थिति
दर्शाती है कि एक संभावनाशील विद्रोह भी अपने ही लोगों द्वारा कैसे अलगाव का शिकार
हो सकता है ।
यह
कविता ‘सैंडविच
थ्योरी’ पर
पूरी तरह आधारित है । जहाँ लोग यह मानकर चलते हैं कि सत्ता-सवर्ण-धनिक के नेक्सस
के खिलाफ एक विद्रोही है और इन दोनों के बीच में एक बड़ी अ-राजनीतिक जनता है जिसे
सामान्यतया मासूम जनता कह कर संबोधित किया जाता है । गोबर के भूत से भी यह जनता
भयभीत है और उस नेक्सस से भी प्रताड़ित । यह कविता उनलोगों को बहुत सुकून देगी जो
इस सैंडविच थ्योरी में विश्वास करते हैं ।
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