धर्म की सेकुलर समझ जहाँ उसे व्यक्तिगत स्तर पर जाकर करीब करीब आध्यात्मिक उन्नयन तक ले जाती है वहीँ बाजार ने व्यक्तिवाद की शह पाकर आस्थाएं भी रिप्रोड्यूस करने की क्षमता ईजाद कर ली है l ऐसे में व्यक्तिगत प्रार्थनाएं मार्मिक तह तक एंटागोनीस्टिक हुई हैं और समरसता लहलहाने को पानी मांग रही है l
किसान एक सीरियस कंसर्न हैं, पर इससे काफी पहले यह कंसर्न चुनावी नारों और लीडरान का मुखराग बन चुके हैं l किसान कहाँ हैं...बेतरतीब शहरों और तरजीही स्मार्ट शहरों के आसपास धंसे हुए से इलाके, जहाँ टीवी, डीटीएच, मोबाइल तो पहुँच गए हैं गरीबी रेखा के नीचे वाली जमावटों में भी पर वे सीमान्त ही बने रहने को मानो अभिशप्त हैं l भारत, गाँवों का देश है, इस पंक्ति की प्रतीति देश के हर दशक में बदल जाती है l
जब अज्ञेय सांप से पूंछते हैं कि डंसना कहाँ से सीखा तो तोहमत शहर पर गिरी थी, पर वो तब का गाँव था l शहर की मोनो आक्साईड अब गाँव के हर गले से लग गयी है l गाँव के तब सांस्कृतिक प्रकार होते थे जिनका वैविध्य राष्ट्र को संबल देता था l अब भी यह विविधता है पर वैषम्य एकरूपता के नीचे कहीं दबी-कुचली सी l आज का कवि उसी गाँव को फिर-फिर निरख रहा है और कविता अपना उचित आकार पा रही है l
किसान एक सीरियस कंसर्न हैं, पर इससे काफी पहले यह कंसर्न चुनावी नारों और लीडरान का मुखराग बन चुके हैं l किसान कहाँ हैं...बेतरतीब शहरों और तरजीही स्मार्ट शहरों के आसपास धंसे हुए से इलाके, जहाँ टीवी, डीटीएच, मोबाइल तो पहुँच गए हैं गरीबी रेखा के नीचे वाली जमावटों में भी पर वे सीमान्त ही बने रहने को मानो अभिशप्त हैं l भारत, गाँवों का देश है, इस पंक्ति की प्रतीति देश के हर दशक में बदल जाती है l
जब अज्ञेय सांप से पूंछते हैं कि डंसना कहाँ से सीखा तो तोहमत शहर पर गिरी थी, पर वो तब का गाँव था l शहर की मोनो आक्साईड अब गाँव के हर गले से लग गयी है l गाँव के तब सांस्कृतिक प्रकार होते थे जिनका वैविध्य राष्ट्र को संबल देता था l अब भी यह विविधता है पर वैषम्य एकरूपता के नीचे कहीं दबी-कुचली सी l आज का कवि उसी गाँव को फिर-फिर निरख रहा है और कविता अपना उचित आकार पा रही है l
मिथिलेश कुमार राय |
बहुआयामी व्यक्तित्व के धनी एवं उम्दा कलमकार मिथिलेश कुमार राय जी की कविता 'गाँव' आज की नवोत्पल की साप्ताहिक चयन प्रविष्टि है l आप नियमित रूप से देश की विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में अपनी रचनाओं से सराहे जाते रहे हैं एवं पत्रकारिता के छोटे अंतराल के पश्चात सम्प्रति गाँव में ही अध्यापनरत हैं l
आपकी कविता पर टिप्पणी के लिए डॉ. विवेक कुमार जी से आग्रह किया गया और आपने अपनी सहज टिप्पणी विशिष्ट अंदाज में की है l
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गाँव
वे
प्रार्थना में
कौन
सा मंत्र बुदबुदाते होंगे
जिस
गाँव में नहर नहीं होता होगा
वहाँ
के किसान
पानी
के बारे में किस तरह से सोचते होंगे
उस
गाँव की यात्रा कैसी रहेगी
जहाँ
बड़े लोगों की बड़ी आबादी से कुछ दूर
छोटे
लोगों की छोटी सी आबादी बसी होगी
वहाँ
कुछ दिन ठहरना कैसा रहेगा
वहाँ
मैं क्या-क्या देख सकता हूँ
ऐसा
एक गाँव जहाँ सिर्फ
छोटे
लोग बसे हो
वहाँ
की सड़कें कैसी होगी
क्या
अब भी वहाँ लालटेन से भेंट होगी
मैं
जाउंगा तो यह भी देखूंगा कि
स्कूल
के समय में वहाँ के बच्चे
कहाँ
जाते हैं
वे गाँव जो
नदी
में बसे हुए हैं
वहाँ
धान की फसल किस तरह लहलहाती होगी
वहाँ
के लोगों को भागना पड़ता होगा तो वे
किस
तरफ भागते होंगे
मैं
कुछ दिन
शहर
से सटे गाँव में बीताना चाहता हूँ
मैं
वहाँ की गालियों पर गौर करना चाहता हूँ कि
वे
शहरी हो गए हैं या
उनमें
कुछ अब भी बचा हुआ है
शहर
से दूर के गाँव
रौशनी
देखकर क्या विचार करते होंगे
कुछ
दिन वहाँ ठहरकर
मैं
यह भी पढ़ना चाहता हूँ
कविता पर
कुछ कहने से पहले साहित्य और समाज पर कुछ कहना चाहूँगा। आज हम एक संक्रमण काल में
जी रहें हैं जहाँ आधुनिकता और विकास के नाम पर नए नए प्रयोग किये जा रहें हैं।
इनके अपने प्रभाव और कुप्रभाव दोनों हैं। बढ़ते शहरीकरणमें गाँव को खोने की कसक
सबके अन्दर है पर देहाती होने की शर्म भी है। परिणाम यह है की धीरे धीरे सबके
अन्दर का गाँव मर रहा है। अब अगर साहित्य की बात करूँ तो एज चिर परिचित सी परिभाषा
जो सबसे पहले दिमाग में आती है वो है साहित्य समाज का दर्पण है। परन्तु समाज के प्रस्तुतीकरण
के पीछे साहित्य का उद्देश्य क्या है?
क्या केवल मनोरंजन
या एक यथोचित प्रश्न?
मुंशी प्रेमचंद
लिखते हैं कि "साहित्य केवल मन बहलाव की चीज नहीं है ... उसे उन प्रश्नों में
दिलचस्पी है जिनसे समाज या व्यक्ति गहरे प्रभावित होतें हैं।" कह सकतें हैं
कि साहित्य शब्दों के माध्यम से समाज की एक ऐसी सच्चाई को प्रस्तुत करता है जो दिल
और दिमाग पर गहरा प्रभाव डालती है और सोचने पर मजबूर करती है।
मिथिलेश जी
की कविता "गाँव" इस तरहा ही सोचनें पर मजबूर करती है। कविता के माध्यम
से कवि ढूंढने की कोशिश करता है कि क्या "उनमें कुछ अब भी बचा हुआ है। शब्द
बहुआयामी हैं जो एक ही समय पर कई सारे प्रश्न खडे करते हैं।
"जिस गाँव में नहर नहीं होता होगा
वहां के किसान
पानी के बारे में किस तरह सोचते
होंगे।"
कविता गाँव
को खोजने की कोशिश करती है। प्रश्न करती है कि क्या गाँव वही है जो हम सोचते हैं
या फिर कुछ अलग।
बचपन में
गाँव जाने का एक अलग ही रोमांच होता था। ये रोमांच न केवल खेत खलिहानों का था बल्कि
उन चीजों का था जी शहरों में नहीं थी। चीका,
ओला-पाती और खलिहान में लुकाछिपी का एक अलग
ही आकर्षण था। गाँव के ठेठपने में एक अपनापन सा था। ये सब समय के साथ विकास और शहरीकरण
की भेंट चढ़ गए हैं। कवि नौस्टल्जिक होता है और सोचता है कि "क्या अब भी वहां
लालटेन से भेंट होगी..!”
कवि देखना
चाहता है की गाँवों को किस हद तक शहर बना दिया गया है या फिर उनमें अब भी गाँव
जिन्दा है। क्या गाँव की लाइफस्टाइल में भदेसपन अब भी है या वे पूरी तरह शहरी ही हो
गए हैं। वहां की आबादी,
सड़कें, दिन रात कैसे हैं। क्या क्या अंतर है। मगर जिन गाँवों
की बात कवि कर रहा है वो भी दो तरीके के हैं। एक वो जो शहरों से सटे हैं विकसित
जिनको आदर्श माना जाता है और दुसरे वो जो विकास से दूर शायद अब भी निरे देहाती। वे गाँव जो
"नदी में बसे हुए हैं...
वहां के लोगों को भागना पड़ता होगा तो वे
किस तरफ भागते होंगे।"
ऐसे गाँव
उन शहरी गांवों से किस तरह अलग हैं।
"मैं कुछ दिन
शहर से सटे गाँव में बिताना चाहता हूँ...
वे शहरी हो गए हैं या
उनमे कुछ अब भी बचा हुआ है"
अंतिम
प्रश्न महत्वपूर्ण है और कविता का सार है कि "शहर से दूर के गाँव, रौशनी देखकर क्या विचार रखते होंगे।" क्या
वे शहरी होना चाहते हैं या गाँव को सहेज कर रखना चाहते हैं।"
डॉ. विवेक कुमार |
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