नवोत्पल गुरुवारीय विमर्श

 


Thursday, June 15, 2017

#32# साप्ताहिक चयन 'मुक़दमा' / 'पूनम विश्वकर्मा '

पूनम विश्वकर्मा 'वासम'
साहित्य में यूं तो  आदिवासी स्वर की कविताएं रची जा रही है , पर शायद दूर  कहीं वातानुकूलित माहौल में, बैठ कर लिखने वाले कवि इस आदिवासी मर्म को लिख तो पाते हैं पर पाठक उनसे कहीं  जुड़ाव नहीं महसूस कर पाता । कविता से पाठक की यह दूरी शायद कवि की विषय से दूरी के बराबर ही होती है । आदिवासी जिले बस्तर में रहने वाली पूनम विश्वकर्मा 'वासम' इस दूरी को न्यूनतम कर देने वाली लेखिका हैं, जिनकी कविता "मुकदमा" ही आज नवोत्पल साप्ताहिक चयन की प्रविष्टि है ।

कविता की टिप्पणीकार,  स्मिता राजेश  सजग पाठक हैं और  केंद्रीय फ़िल्म प्रमाणन बोर्ड की सदस्य रह चुकी है । रेडियो उद्घोषक के रूप में आपने इंदौर आकाशवाणी केंद्र में सेवाएं दी हैं। आप फ़िलहाल मुम्बई में अपना अभिनय स्कूल सफलता से चला रही हैं ।


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मुकदमा
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Flying Land by Leonard Digenio

हजारों  वृक्षो की हत्या का मुकदमा
दायर किया बची- कूची सूखी पत्तियों ने
बुलाया गया उन हत्यारों को
दी गई हाथ में  गीता....
कसम भी खाया भरी अदालत में
कि जो कुछ कहेंगे सच कहेंगे
कहा भी वही जो सच था !

अदालत ने भी माना कि
वृक्षो की हत्या कोई सोची -समझी रणनीति नही थी
और नही कोई साज़िश रची थी हत्यारों ने
क़सूर तो था वृक्षो का जिन्होंने कि थी कोशिश
धरती को सूरज की तपिश से बचायें रखने की

मूर्ख  थे सारे के सारे वृक्ष
मान बैठें खुद को चाँद की मौन किरणों की भाषा का
सबसे बड़ा अनुवादक !

 थी बादलों से भी  इनकी साठ -गांठ
इसलिए रोप आते थे धरती की कोख़ में
अंसख्य नन्ही-नन्ही बूंदों को
नीले समुन्द्र की खेती के लिए !

मूर्ख थे सारे के सारे वृक्ष
काँक्रीट के जंगलों में उगाना चाहते थे गुलमोहर के फ़ूल
मधुमखियों से इनकी अच्छी जमती थी
इसलिए बाँट आते थे तितलियों को
उनके हिस्से का दाना-पानी  !

अपनी हवाओं के बदले
हमारी सांसे  रखना चाहतें थे गिरवी
इसलिए उन सारे वृक्षो को उखाड़ कर फेंक दिया
जिनकी जड़े जुड़ी हुई थी हमारे हिस्से की मिट्टी से !

मूर्ख थे सारे के सारे वृक्ष इन्हें शायद पता नही कि
जिन्दा रहने के लिए अब  कृत्रिम हवा ही काफ़ी है

डाली से अलग हुई सूखी पत्तियों को भी
उतनी अक़्ल कहाँ कि ....
करते विरोध वृक्षो की हत्या का
अच्छा होता ग़र समय रहते सारे के सारे वृक्ष बैठ जाते
 बिना कुछ कहें बिना कुछ सुनें अनशन पर।





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कविताओं की शृंखला में से किसी एक को चुनना,काफ़ी कठिन होता है क्योंकि हर कवि की अपनी कल्पना है अपना रचित संसार है जहाँ उसकी सत्ता है उसकी प्रजा है। इसलिये हर नाम स्वयं में प्रमुख होता है।
मगर,कहीं कोई एक रचना त्वरित रूप में हमें बाँधती है। कारण प्रथम दृष्टया तो समझ नहीं आते,मगर कहीं कोई पृथकता अवश्य होती है जो दिमाग़ नहीं दिल से अपनी राह तय करती है।
'मुकदमा', ऐसी ही एक कविता है। रचना की सफलता उसके भाषायी सौंदर्य से बढ़कर इस तथ्य में अधिक निहित होता है कि वो आम पाठक को कितनी समझ में आई?
इसी दृष्टिकोण से अगर देखें तो उपरोक्त कविता प्रथम अपने विषय को लेकर आकर्षित करती है। प्रकृति पर अमूमन कवितायें काम ही लिखी जाती हैं बनस्पत और विषयों के और लिखी भी जाती हैं तो उसके सौंदर्य पर । उसके दर्द को समेटने। उसके निःस्वार्थ स्वभाव को दर्शाने। उसके 'व्यावहारिक' न होने का जो चित्रण कवि ने इस कविता में प्रयास रूप जो किया है वह सराहनीय है।

"थी बादलों से भी  इनकी साठ -गांठ 
इसलिए रोप आते थे धरती की कोख़ में
अंसख्य नन्ही-नन्ही बूंदों को 
नीले समुन्द्र की खेती के लिए"

कवि ने वृक्षों की ओर से जिरह करते हुए जिस सुंदरता से समानांतर रूप में कटाक्ष और पीड़ा के भावों को चलने दिया वह सुखद है।
कविता अपने विषय को लेकर आराम्भ में जो पकड़ बनाती है वह शायद कमज़ोर पड़ी है समाप्ति की तरफ़ बढ़ते हुये। वृक्षों के सदाचारी आचरण को वर्तमान परिप्रेक्ष्य की राजनीति से जोड़ते हुए जिस तरह कविता का आकस्मिक अंत हुआ वह कहीं कविता की चाल को अधूरी कर गया। 
द्वितीय रूप में कविता गद्य रूप में होकर भी पद्य सी मोहक लगती है। एक अनदेखा सा सुर लगातार बहता है । 
मूर्ख  थे सारे के सारे वृक्ष
मान बैठें खुद को चाँद की मौन किरणों की भाषा का
सबसे बड़ा अनुवादक !

 थी बादलों से भी  इनकी साठ -गांठ 
इसलिए रोप आते थे धरती की कोख़ में
अंसख्य नन्ही-नन्ही बूंदों को 
नीले समुन्द्र की खेती के लिए !

"मूर्ख थे सारे के सारे वृक्ष
काँक्रीट के जंगलों में उगाना चाहते थे गुलमोहर के फ़ूल 
मधुमखियों से इनकी अच्छी जमती थी
इसलिए बाँट आते थे तितलियों को
उनके हिस्से का दाना-पानी "

स्मिता राजेश 
कवि को साधुवाद जो एक ऐसे विषय को अपनी कविता का आधार बनाया जो पाठकों को उतना नहीं लुभाता जितने अन्य विषय। वृक्षों का चरित्र चित्रण निःसंदेह बाँधता है। उनकी निश्छल छवि का वर्णन कम शब्दों में लुभाता है। भाषा सरल है यही इसकी सुंदरता है। कवि ने बस मन की पुकार को जैसे कैनवास में जगह दी है।।
एक प्रशंसनीय रचना पर बधाई।                                     (स्मिता राजेश )

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