डाॅ जोशना बैनर्जी आडवानी |
बंदिशें बेमुरव्वत होती हैं l
इस दौर में या बीते हुए दौर में या फिर आगे आने वाले दौर में , दौर कोई भी रहा हो एक चीज़ जो नहीं बदलती, वो है बन्दिशें। इंसान पर समाज की बन्दिशें , कमजोर देश पर मजबूत देश की बन्दिशें , गरीबों पर लगाई गयी बन्दिशें , कमजोर पुरुष पर मजबूत पुरुष/महिला की बन्दिशें आदि आदि । बन्दिशों के इस दौर में सबसे ज़्यादा बंदिशे अगर किसी पर चाहे/ अनचाहे लगाई गईं तो वह मादा जीव ही हैं (जानवरों मे भी गाय से ज्यादा साँढ़ ही खुल्ला छोड़े जाते हैं ) । और हमारे समाज की बात करें तो सबसे ज़्यादा बन्दिशों मे मादा होमो सैपियन्स ही है । बन्दिशों मे जकड़े इन समाज और रिवाजों से Formaldehyde जैसी दुर्गंध सी उठती है ।
ये बन्दिशें कोई भी सहजता और समर्पण से स्वीकार करना नहीं चाहता, नतीजतन उपजता है अनमनापन और जनमता है प्रतिरोध व प्रतिकार । कहीं ये भावनाएं कोई सकारात्मक स्वरूप ले पाएँ तो निर्माण करती हैं एक स्वतंत्र विचार का , सोचने के एक नए ढंग का और रचती हैं एक ऐसी दुनिया जहां गलकाट प्रतिस्पर्धा न होकर , सब के लिए उनका एक नियत स्थान होता है । इसी भावना को स्वर देती एक कविता आज प्रस्तुत की जा रही है ।
कत्थक और भरतनाट्यम नृत्य मे प्रभाकर की उपाधि से दीक्षित , रंगलोक जैसे प्रसिद्ध नाट्य संस्थान में कार्यरत आज की कवियित्री डाॅ जोशना बैनर्जी आडवानी जी का शिक्षा से भी जुड़ाव है आप एक प्रतिष्ठित विद्यालय की प्रधानाचार्य भी हैं , साथ ही वो FM रेडियो पर कविताओं का वाचन भी करती हैं। आप की कविताओं की चमक आज कल हर हर फ़लक पर दिखती है । आप की लिखी कविता “बू....“ को इस सप्ताह के साप्ताहिक चयन के रूप में नवोत्पल सम्पादकीय समूह द्वारा चयनित किया गया है । आपकी कविता पर सहज टीप की है, आदरणीया अमिता पाण्डेय जी ने, आप संवेदनाओं से परिपूर्ण कुशल पाठिका हैं | अमिता जी शुरू से ही नवोत्पल समूह से जुड़ी हुई हैं , आप कविताओं को न सिर्फ पढ़ती हैं बल्कि उन पर एक विचार भी विकसित कर सकने की हैसियत रखती हैं ।
इस दौर में या बीते हुए दौर में या फिर आगे आने वाले दौर में , दौर कोई भी रहा हो एक चीज़ जो नहीं बदलती, वो है बन्दिशें। इंसान पर समाज की बन्दिशें , कमजोर देश पर मजबूत देश की बन्दिशें , गरीबों पर लगाई गयी बन्दिशें , कमजोर पुरुष पर मजबूत पुरुष/महिला की बन्दिशें आदि आदि । बन्दिशों के इस दौर में सबसे ज़्यादा बंदिशे अगर किसी पर चाहे/ अनचाहे लगाई गईं तो वह मादा जीव ही हैं (जानवरों मे भी गाय से ज्यादा साँढ़ ही खुल्ला छोड़े जाते हैं ) । और हमारे समाज की बात करें तो सबसे ज़्यादा बन्दिशों मे मादा होमो सैपियन्स ही है । बन्दिशों मे जकड़े इन समाज और रिवाजों से Formaldehyde जैसी दुर्गंध सी उठती है ।
ये बन्दिशें कोई भी सहजता और समर्पण से स्वीकार करना नहीं चाहता, नतीजतन उपजता है अनमनापन और जनमता है प्रतिरोध व प्रतिकार । कहीं ये भावनाएं कोई सकारात्मक स्वरूप ले पाएँ तो निर्माण करती हैं एक स्वतंत्र विचार का , सोचने के एक नए ढंग का और रचती हैं एक ऐसी दुनिया जहां गलकाट प्रतिस्पर्धा न होकर , सब के लिए उनका एक नियत स्थान होता है । इसी भावना को स्वर देती एक कविता आज प्रस्तुत की जा रही है ।
कत्थक और भरतनाट्यम नृत्य मे प्रभाकर की उपाधि से दीक्षित , रंगलोक जैसे प्रसिद्ध नाट्य संस्थान में कार्यरत आज की कवियित्री डाॅ जोशना बैनर्जी आडवानी जी का शिक्षा से भी जुड़ाव है आप एक प्रतिष्ठित विद्यालय की प्रधानाचार्य भी हैं , साथ ही वो FM रेडियो पर कविताओं का वाचन भी करती हैं। आप की कविताओं की चमक आज कल हर हर फ़लक पर दिखती है । आप की लिखी कविता “बू....“ को इस सप्ताह के साप्ताहिक चयन के रूप में नवोत्पल सम्पादकीय समूह द्वारा चयनित किया गया है । आपकी कविता पर सहज टीप की है, आदरणीया अमिता पाण्डेय जी ने, आप संवेदनाओं से परिपूर्ण कुशल पाठिका हैं | अमिता जी शुरू से ही नवोत्पल समूह से जुड़ी हुई हैं , आप कविताओं को न सिर्फ पढ़ती हैं बल्कि उन पर एक विचार भी विकसित कर सकने की हैसियत रखती हैं ।
आइये इस अद्भुत युग्म का आस्वाद करें ।
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बू.... (दुर्गंध)
मैने एक जगह रूक के डेरा डाला
मैने चाँद सितारो को देखा
मैने जगह बदल दी
मैने दिशाओ को जाना
मै अब खानाबदोश हूँ
मै नखलिस्तानो के ठिकाने जानती हूँ
मै अब प्यासी नही रहती
मैने सीखा कि एक चलती हुई चीटी एक उँघते हुये
बैल से जीत सकती है
मुझे बंद दीवारो से बू आती है
मै सोई
मैने सपना देखा कि जीवन एक सुगंधित घाटी है
मै जगी
मैने पाया जीवन काँटो की खेती है
मैने कर्म किया और पाया कि उन्ही काँटो ने
मेरा गंदा खून निकाल दिया
मैने स्वस्थ रहने का रहस्य जाना
मुझे आरामदायक सपनो से बू आती है
मै दुखी हुई
लोगो ने सांत्वना दी और बाद मे हँसे
मै रोई
लोगो ने सौ बाते बनाई
मैने कविता लिखी
लोगो ने तारीफे की
मेरे दुख और आँसू छिप गये
मै जान गई कि लोगो को दुखो के कलात्मक
ढाँचे आकर्षित करते है
मुझे आँसुओ से बू आती है
मैने बातूनियो के साथ समय बिताया
मैने शांत रहना सीखा
मैने कायरो के साथ यात्रा की
मैने जाना कि किन चीज़ो से नही डरना
मैने संगीत सुना
मैने अपने आस पास के अंनत को भर लिया
मै एकाकीपन मे अब झूम सकती हूँ
मुझे खुद के ही भ्रम से बू आती है
मैने अपने बच्चो को सर्कस दिखाया
मुझे जानवर बेहद बेबस लगे
मैने बच्चो से बाते की
उनकी महत्वकांक्षाओ की लपट ऊँची थी
मैने उन्हे अजायबगर और पुस्तकालय मे छोड़ दिया
अब वे मुझे अचम्भित करते है
मैने जाना कि बच्चो के साथ पहला कदम ही
आधी यात्रा है
मुझे प्रतिस्पर्धाओ से बू आती है
मुझे दोस्तो ने शराब पिलाई
मैने नक्सली भावो से खुद को भर लिया
मैने जलसे देखे
मैने अपना अनमोल समय व्यर्थ किया
मै खुद ही मंच पर चढ़ गई
मेरे दोस्त मुझपर गर्व करते है
मैने जाना कि सम्राट सदैव पुरूष नही होते
मुझे खुद के आदतो से बू आती है
मुझे कठिनाईयाँ मिली
मैने मुँह फेर लिया
मैने आलस बन आसान डगर चुनी
मुझे सुकून ना मिला
मैने कठिनाईयो पर शासन किया
मेरी मेहनत अजरता को प्राप्त हुई
मैने देखा कठिनाई अब भूत बन मेरे
पीछे नही भागती
मुझे बैठे हुये लोगो से बू आती है
मैने प्रेम किया
मैने दारूण दुख भोगा
मैने अपने प्रेमी को दूसरी औरतो से अतरंगी
बाते करते देखा
मै जलती रही रात भर
मैने प्रेम को विसर्जित कर दिया
प्रेम ईश्वर के कारखाने का एक मुद्रणदोष है
प्रेम कुष्ठ रोग और तपैदिक से भी भयंकर
एक दिमागी बीमारी है
मुझे उस पल से बू आती है
जब मैने प्रेम किया
[डाॅ जोशना बैनर्जी आडवानी ]
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"इस लेखन पर कोई क्या कहे जो भीतर घुसकर आपको खामोश कर दे।"
यह कविता उत्तरआधुनिक और बाजारवाद के दौर की बू वाली कविता है अर्थात् आज की कविता है...यह कविता प्रत्यक्ष रूप में एक महिला द्वारा उसकी ऐसी स्थिति को गुनगुना रही है, जहांँ वह एक ओर पुरानी परम्पराओं और मान्यताओं से संघर्ष कर रही है तो दूसरी ओर तत्कालीन मूल्यहीन समाज और व्यक्तिकेंद्रित महत्वाकांक्षा के दौड़ में उलझी हुई है। इस कविता के उदाहरणों से यूँ समझ सकते हैं की हमारी ऐसी परम्पराएं जहाँ स्त्री सिर्फ घर और आँगन के दायरे में बंधी है, आज के समय में भी स्त्री के लिए दायरे बने हुए है। इसके बरख़्श पुरुष स्वतन्त्र है। समाज में स्त्रियों के प्रति इस भेदभाव के कई उदाहरण मिल जायेंगे, इसलिए कवयित्री कहती है-
मुझे बंद दीवारो से बू आती है।
ये बंद दीवारें, बंद संकुचित मानसिकता की है....किन्तु वह इन झूठी ढकोसले से भरी रीतियों के समक्ष झुकती नही है, अपितु अपने लिए वह इस रेगिस्तान में भी हरियाली ढूंढ लेती है। वह अपना विकल्प, नखलिस्तान तलाश लेती है, किंतु इसके इतर वह लगातार लिंगभेद के आधार पर बटी सामाजिक व्यवस्था का दंश झेलती रहती है।
कविता की अंतिम पंक्तियों को देखे जहाँ आज के मूल्यहीन समाज का चरित्र सामने आता है और मानवीय भावनाएं भी मात्र बाजार की वस्तु बनकर रह जाती है। बदलाव का समय ठीक है कि नही ये कोई तय नही कर सकता क्योंकि जीवन का बदलाव कभी भी, किसी भी परिस्थिति में हो जाता है; हम चाहे या ना चाहे । इसलिए इसमें सकारात्मक रुख पर बने रहना चाहिए, जिससे हम अपनी नकारात्मक परिस्थितियों से उबर सके।
कविता की अंतिम पंक्तियों को देखे जहाँ आज के मूल्यहीन समाज का चरित्र सामने आता है और मानवीय भावनाएं भी मात्र बाजार की वस्तु बनकर रह जाती है। बदलाव का समय ठीक है कि नही ये कोई तय नही कर सकता क्योंकि जीवन का बदलाव कभी भी, किसी भी परिस्थिति में हो जाता है; हम चाहे या ना चाहे । इसलिए इसमें सकारात्मक रुख पर बने रहना चाहिए, जिससे हम अपनी नकारात्मक परिस्थितियों से उबर सके।
इसे पढ़कर कुछ पंक्तियाँ स्मृति में आ रही है......
" दुनिया में वही शख्स है ताज़ीम के काबिल जिस शख़्स ने हालात का रुख मोड़ दिया हो"
इस कविता की मेरी सबसे पसंदीदा पंक्तियाँ हैं :
इस कविता की मेरी सबसे पसंदीदा पंक्तियाँ हैं :
मैने बातूनियो के साथ समय बिताया
मैने शांत रहना सीखा
मैने कायरो के साथ यात्रा की
मैने जाना कि किन चीज़ो से नही डरना
मैने संगीत सुना
मैने अपने आस पास के अंनत को भर लिया
मै एकाकीपन मे अब झूम सकती हूँ
मुझे खुद के ही भ्रम से बू आती है
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