नवोत्पल गुरुवारीय विमर्श

 


Sunday, February 18, 2018

#46 # साप्ताहिक चयन: "दूर हो रही हूँ तुमसे ....." / ज्योति शोभा


ज्योति शोभा

सजग पाठिका एवम सदैव साहित्य सृजन में उन्मुख ज्योति शोभा जी अंग्रेजी साहित्य में स्नातक हैं।  इनकी कई कविताएं राष्ट्रीय और अंतराष्ट्रीय संकलनों में प्रकाशित हो चुकी हैं।  कविताओं में एक जादू सा रच , सम्मोहित करने का आरोप आप बार बार लगता रहता है । प्रेम , विरह , शृंगार के साथ ही साथ आप की लेखनी एकाकीपन , चाह , विरक्ति , ईश्वरीय सत्ता में खुद को तलाशती हुई भी लगती है । 

आप की कविता पर टीप लिख रही हैं प्राणीशास्त्र में पीएचडी तथा प्राणिक हीलिंग में विशेषज्ञता प्राप्त डॉ. अंजना टंडन जी , जो कि सम्प्रति राजस्थान विश्वविद्यालय में विज़िटिंग प्रोफेसर हैं । अंजना जी कला के कई आयामों से जुड़ी हुई हैं ।  एक तरफ अंजना जी जहाँ सूने कैनवास पर खूबसूरत रंग उढेल कर  पेंटिंग्स बनाती हैं , तो दूसरी तरफ बोन्साई और बागवानी करते हुए न जाने कितने पौधों को नया रूप देती हैं । एक तरफ कविता रचती हैं , तो दूसरी तरफ कहानियां भी खूब सुनाती हैं । 


आइए देखते हैं कि इस अद्भुत युग्म ने आज नवोत्पल के लिए क्या नया स्वाद गढ़ा है । 


                                                                                  [ डॉ गौरव कबीर ]

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दूर हो रही हूँ तुमसे 

हर स्मृति के साथ 
मैं दूर हो रही हूँ तुमसे 
कोई एक देश, एक समंदर 
या एक क्षितिज भर जितनी दूर
एड़ियों की रगड़ से निकली नदी में 
बिछलती नौका जितनी दूर
तुम किसे बताओगे 
कोई निद्रा थी जिसे स्मृति में तुमने अपनी गंध दी थी 
और मृत्यु में पुनर्जन्म
मैं तुम्हें बार बार कह रही हूँ 
चाहे न सिहरो पहले स्वप्न में 
चाहे कान की लवें लाल होने तक देखो मेरे होंठ 
चाहे इस भीषण बरखा के पार खड़े होकर देखो 
मगर देखो स्मृति किस तरह भरती है 
पहले हड्डी के कोटर फिर केशों के ताल 
और फिर छीन लेती है तुम्हारी गंध 
नौका के गीले रंध्रों से मेरे ।

ज्योति शोभा


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अंजना टंडन 
इस संसार में मनुष्य होने की जद में सामान्य प्रवृतियों की अभिव्यक्ति होते रहना अति आवश्यक है वरना सब भाव पत्थरों के देवलोक में अनगढ़ शब्दों की प्रार्थनाओं में सिमट रह जाएँगें ।
आज के समय की युवा समकालीन  कवियत्रियों में ज्योति शोभा एक उभरता हुआ प्रमुख नाम है ....साथ ही मेरी बेहद पसंदीदा रचनाकार.....
जहाँ एक तरफ इनकी कविताएँ प्रेम के शिवालिक पर बैठ गंगोत्री में अपना पवित्र अक्स देखती है, वहीं ज़मीनी नारीवाद व विमर्श की छाया से भी कोसों दूर हैं।
ज्योति अपनी कविताओं में नैसर्गिक प्रेम को सबलाईम  तरिके से घटित और पुष्पित होने देती है जिसकी सुगँध दिगंत तक व्याप्त है ।इनकी रचनाओं में मुख्यत: इनकी दार्शनिक और आध्यात्मिक धारणाओं को पुष्ट करते हुए भाव है , नैसर्गिक प्रेम की क्रीडाओं से संबद्धित शिल्प है लेकिन कहीं खुले तौर पर परिभाषित नहीं पर पूर्णरूपेण समाहित है।

इनकी कविताओं के अदंर कुछ और कविता चलती रहती है , यही अंतर्निहित चेतना इनकी कविताओं को अलग व श्रेष्ठ बनाती है
 ज्योति की दुनिया में प्रेम भक्ति का ही दूसरा स्वरूप है
इनकी समझ में प्रेम वो नहीं जो कुछ लौकिक या दैहिक है
प्रेम वो है जिस तरह से उसका होना है
प्रेमी का डूब के किया गया स्पर्श भी इबादत में तब्दील हो सकता है
इनकी कविताएँ अखिल में समागम के राग गाती हैं व साथ ही बहुत प्रैक्टिल होकर बताती है कि  स्मृतियों में एकाकीपन की बंजरता से बेहतर है उस पल में साँस लेते हुए समावेश की पैदावार करना.....

ज्योति की रचनाधर्मिता की अपनी आँख है अपनी इमेजरी है जो उनकी काव्य प्रतिभा का बहुत महत्त्वपूर्ण पक्ष है। उनका स्वर अपनी रचना में पृथक से नहीं ब्लकि उसके होने में ही खुद को घुला देता है ऐसा करने के लिए निश्चय ही  रचियता में  अपनी अनुभूति, संवेदना और माध्यम के प्रति गहरी निष्ठा का भाव आवश्यक होता है जो ज्योति की रचनाओं में बेहद संजीदगी से निभाया जाता है ।
अपनी कल्पनाशीलता से अपनी अभिव्यक्तियों में वह अपने बिम्बों को उनके पुराने ठिकानों से कुछ क़दम आगे ले जाकर ताज़गी का एहसास देती हैं। बिम्ब और शब्द यहाँ वाहक भी है वहन भी, वे कभी खुद कुछ कहते है कभी कहने को सुनने में लीन हो जाते है।
इनकी कविताएँ अगर समझ ना आएँ तो उन्हें बार बार पढ़ना चाहिए....ये तो जरूर ही कहा जा सकता है क्यूँकि इनके शिल्प पक्ष में अर्थ की सघनता है....
अक्सर इनकी कविताएँ अपने गूढ़ कथन के हाथ में पाठकों का हाथ धीरे से पकड़ कर साथ बिठा लेती है इस संगत से उनके मन में मौन की लय और लय का मौन व्यापने लगता है।

प्रस्तुत कविता में इनके भाव है कि जीवन में प्रत्येक क्षण को भरपूर जीना स्मृतियों के पोखर की नैतिकता ढोने से बेहतर है, क्यूँकि जीवन , प्रकृति और पुर्नजन्म किसी विश्वव्यापी नियम द्वारा अनुशासित है, जिसके सिद्धांत आध्यात्मिक हैं इसलिए प्रेम के प्रत्येक क्षण के पार उतरने के लिए ह्दय का उपयोग करना बेहतर है ना कि मस्तिष्क का..
हर स्मृति के साथ मैं दूर हो रही हूँ तुमसे....कहने में सारी बात है, एड़ियों के रगड़ से निकली नदी में....अकेला बिताया हर पल दूर कर रहा है, हर उठाया गया क़दम आँसुओं की नदी बना रहा है
चाहे कान की लवें लाल होने तक देखो.........देखो स्मृति किस तरह भरती है.....अपनी सृजनात्मकता में यहाँ ये चीज़ों को उनकी स्थिति से उनके मूल से विछिन्न नहीं करती ब्लकि जैसी वे हैं उसी में कुछ और हो जाने की संभावना की प्रतीक्षा करती है । ज्योति शोभा की काव्य निर्मिति और शिल्प की यही ख़ासियत है कि वह प्रेम व आध्यात्म की यथार्थ और कल्पित, ठोस और अमूर्त, संगत से विसगंत की बहुआयामी यात्रा एक ही रचना में उपलब्ध करा देती हैं।पहले हड्डी के कोटर फिर केशों के ताल.........आह....क्या बिम्ब है, छीन लेती है गंध नौका के गिले रंध्रों से मेरे...बड़े जतन से असंकोची तरिके से विडम्बना प्रकट हुई है, ..ढोना आसान है जीना मुश्किल.....अपने अपने हिस्से के प्रेम को जी पाना ही सही मायने में प्रेम है

ज्योति की कविताएँ यूँ तो इश्के मिज़ाजी की रचनाएँ प्रतित होती है पर यूँ लगता है कि जैसे कहना भी कोई विवशता है...रचनाएँ समर्पण और कामनाओं के मध्य सेतु को तलाशती है जिस पर से गुजरते हुए उसे सदियों से अतृप्त प्रेम का अखिल में समावेश दिखता है....कवि की नियति होती है कि वे कहने के लिए ही बनेहोते हैं...पर कहीं कहीं ऐसा कोई ईश्वरीय क्षण संभव होता है जहाँ इसे न भी कहा जा सके......! 
मैं उन्हें बहुत बहुत बधाई व भविष्य के लिए शुभकामनाएँ प्रेषित करती हूँ ।
【अंजना टंडन】

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