नवोत्पल गुरुवारीय विमर्श

 


Thursday, March 15, 2018

#47 # साप्ताहिक चयन: "शाम का साथी ...." / सुधांशु फिरदौस


“ हमें कविताओं में सौम्यता को लाना होगा, जबकि प्रेम तो आवश्यक है ही। अपने आसपास देखिये, सबसे ज्यादा हमले किस पर होते है ? सौम्यता पर ही न, जैसे स्त्रियों, बच्चों और प्रकृति पर । इसीलिए मैं प्रकृति पर लिखता हूँ !" 

एक साक्षात्कार में ये कथन दिया था सुधांशु फिरदौस जी ने ।  
सुधांशु फिरदौस 

सुधांशु फिरदौस जी आज हिन्दी के युवा कवियों में शीर्ष के नामों में से एक हैं। हिंदी वालों के साथ ही साथ उर्दू अदब के आशिक भी आप की लेखनी पर फिदा हैं। BHU के विद्यार्थी रहे सुधांशु जी गणित के छात्र और अध्यापक हैं। पर जीवन के समीकरणों ने आप की रुचि कविता, साहित्य और कला की तरफ शुरुआत से ही मोड़ कर रखी हुई है।

आप की कविता ‘शाम का साथी’ पर टिप्पणी लिखने हेतु अपनी सहमति दी है युवा कवि एवं कुशाग्र आलोचक अविनाश मिश्र जी ने। अविनाश जी संप्रति एक साहित्यिक पत्रिका का सम्पादन भी कर रहे हैं।  

आइए देखते हैं कि इस अद्भुत युग्म ने आज नवोत्पल के लिए क्या नया स्वाद गढ़ा है।

 [ डॉ गौरव कबीर ]
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छाया: गौरव कबीर 

शाम का साथी

डूबते हुए सूरज के साथ
रक्ताभ होते आकाश का हल्का नीलापन
मुझे मेरे अंदर किन्हीं अतल गहराइयों में डुबो रहा है
लगभग सारे पक्षी अपने बसेरों की ओर उड़ चले हैं
नदी किनारे मछलियों से बात करने में मसरूफ
एक छुट गया अपने झुंड से


अपनी व्याकुलता और उदासी के साथ
आज की शाम मेरे साथ सिर्फ वही है



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जब परिचय गैरजरूरी हो उठता है, हिंदी कविता में उस आयु और अस्मिता तक आ चुके सुधांशु फ़िरदौस की कविता ‘शाम का साथी’ को अगर इसके शीर्षक के बगैर कहीं प्रस्तुत या उद्धृत किया जाए, तब यह किसी लंबी कविता का एक अंश प्रतीत हो सकती है. लेकिन यों है नहीं, क्योंकि आठ पंक्तियों की यह एक मुकम्मल कविता है.

सुधांशु ने अपनी कविताओं की इधर जो दुनिया बनाई है, वह अछूते विषयों और ‘विडंबनाओं के विस्तृत’ से निर्मित हुई और हो रही है. लेकिन एक कवि की ‘रोज बनती दुनिया’ में कुछ तत्व और असर बहुत स्थायी होते हैं, वे तमाम बदलावों के बीच भी नहीं बदलते. इस अर्थ में देखें तो देख सकते हैं कि सुधांशु की कविताएं तब सबसे ज्यादा सुंदर नजर आती हैं, जब उनमें लोक और प्रकृति के बिंब आते हैं. यह सुखद है कि उनके अब तक के कविता-संसार में यह सुंदरता प्राय: घटित होती रही है.

इस घटित होते रहने में अपनी मूल काव्याभिव्यक्ति को पाने की कवियोचित छटपटाहट सुधांशु में देखी गई है. यह उनके लिए बतौर एक कवि अपने आस-पास को, उसकी गतिशीलता को समझते और व्यक्त करते हुए अपने अंदर किन्हीं अतल गहराइयों में डूबने की तरह रहा है, जिसका इशारा यहां उनकी एक प्रारंभिक कविता ‘शाम का साथी’ में नजर आता है.

इस कविता में अकेले होते चले जाने की प्रामाणिक प्रक्रिया और कारुणिक दृश्य — कविता में बस एक शाम भर का दिखाई देते हुए भी — कवि के अतीत और आगामी संघर्ष भरे सालों तक फैला हुआ नजर आता है. यह भविष्य को ‘आज की शाम’ में पढ़कर उसे अभिव्यक्त कर देना भी है— अपनी व्याकुलता और उदासी के साथ.

सुधांशु ने अपनी व्याकुलता और उदासी को कविता में कभी रद्द नहीं किया है. वह जीवन और संसार के कैसे भी प्रसंगों को कविता में कहें, यह ख्याल रखते हुए कहते रहे हैं कि उनकी व्याकुलता और उदासी कहीं उनसे छूट न जाए. यह ख्याल बहुत कुछ को छूटते हुए देखने और उसके बोध से पैदा होता है.

यहां प्रस्तुत कविता में सारे पक्षियों का अपने बसेरों की ओर उड़ चलना, सिर्फ पक्षियों का उड़ चलना नहीं है. यह घोर दुनियावी व्यस्तताओं की रफ्तार में एक कवि का अपनी संवेदना की वजह से अकेला पड़ जाना है.

इस अकेलेपन में सुधांशु फ़िरदौस का वास्ता इस सदी में सामने आई हिंदी कविता की उस पीढ़ी से है जो इन दिनों एक साथ अपनी उर्वरता और निर्लज्जता को जी रही है. कवि होने के दायित्व को जानने और वक्त में अपने किरदार की शिनाख्त करने के बजाय आज बहुत सारे कवि आईनों से आगे नहीं बढ़ पा रहे हैं. यह आत्मग्रस्तता आत्मप्रचार के संसाधनों के सहज हो जाने का निष्कर्ष है. यह पीढ़ी अपने वरिष्ठ कवियों को असुरक्षाबोध से आकुल, उनकी कविता को बहुत उपलब्ध और एक सार्वजनिक स्वीकार का मोहताज देख रही है. उनकी हरकतें नवांकुरों से भी गई-गुजरी हैं. इस स्थिति में सुधांशु ही नहीं किसी भी वास्तविक कवि का काम करना बहुत मुश्किल है, लेकिन इस दृश्य में उनका कवि हाथ का काम छोड़कर बैठ नहीं गया है. वह उसे बेहद सलीके और धैर्य से बता-सुना रहा है, जो उस पर बीता है.

सुधांशु प्रभावों से मुक्त एक मौलिक कवि-कर्म का प्रस्थान-बिंदु पार कर चुके हैं. उनके नजरिए में दूरगामिता की चाह ने उनकी कविता को समृद्धि दी है. जीवन में बहुत कुछ छूटने और ग्रामों से निकलकर नगरों-महानगरों में बसने और उनसे बराबर गुजरने के बावजूद भी उनके यहां ‘जनपद’ छूटा हुआ नहीं लगता है. उनमें एक साथ शब्द-संकोच और शब्द-बाहुल्य को पाया जा सकता है. कवि की यह विशेषता पूरी सामर्थ्य के साथ एक जनपद का समग्र दृश्य-विधान रच सकती है— कभी शब्द-संकोच के साथ, कभी शब्द-बाहुल्य के साथ.

सुधांशु ने अपने अब तक के काव्य-कौशल से जिस शब्द-शक्ति, बिंब-वैभव और अर्थ-बहुलता का प्रकटीकरण किया है, वह अपने कुल असर में उन्हें हिंदी कविता में उस आयु और अस्मिता तक ले आता है, जहां परिचय गैरजरूरी हो उठता है.

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