नवोत्पल गुरुवारीय विमर्श

 


Wednesday, March 28, 2018

#48 # साप्ताहिक चयन: "टुकड़ा-टुकड़ा अनुभव ...." / पूनम अरोड़ा

पूनम अरोड़ा

नवोत्पल के इस अंक में  कहानी और  कविता को संगीत के साथ मिलाकर अपनी आवाज में एक नया स्वरूप देने वाली पूनम अरोड़ा जी की कविता का चयन किया गया है  आप ने इतिहास और मास कम्युनिकेशन मे परास्नातक की उपाधि हासिल की है । पूनम जी हिंदी और विश्व साहित्य के पठन में गहरी रूचि रखने वाली हैं तथा सिनेमा की बारीकियों को भी भलीभाँति समझती हैं , जिस का प्रभाव भी आप की लेखनी पर सहज ही दिखता है। अपनी दो कहानियों 'आदि संगीत' और 'एक नूर से सब जग उपजे'  के लिए आप को  हरियाणा साहित्य अकादमी का युवा लेखन पुरस्कार मिल चुका है। 2016 में लल्लनटॉप द्वारा आयोजित कहानी प्रतियोगिता में आप की कहानी 'नवम्बर की नीली रातें' पुरस्कृत है और वाणी प्रकाशन से एक किताब रूप में प्रकाशित हुई है।



आज इस कविता पर  टिप्पणी लिखने के लिए अपनी सहज स्वीकृति श्री शिव किशोर तिवारी जी ने दी है। शिव किशोर जी भारतीय प्रशासनिक सेवा के सेवानिवृत्त अधिकारी हैं , पर सरकारी कामों मे सदैव उलझा रहने वाला ये मन, साहित्य की सूक्ष्मतम बारीकियों से भी बख़ूबी वाकिफ़आप की साहित्यिक दृष्टि और अध्ययन दुर्लभ है।  आप की लिखी हुई विवेचनात्मक समीक्षाएं पढ़ना एक गंभीर परंतु सुखद अनुभव होता है । आप ने बांग्ला , असमिया , सिलहटी और अङ्ग्रेज़ी के अनुवाद का कार्य किया है।
आइये आज कविता पढ़ते हैं पर टिप्पणी सिर्फ पढ़ेंगे नहीं बल्कि लिखना भी सीखते हैं 




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टुकड़ा-टुकड़ा अनुभव

By: Anjana Tandon

मेरे पास अदृश्य हवा को रोकने का कोई तरीका नहीं था
तो मैंने उसे कहा 
आओ
हवाओं
देखो मेरा पालना

और मेरे मुंडन के समय उतरे बाल वहीं एक कोने में रखे हैं
पान के पत्ते में बंधे

मैं अपना संवाद जारी रख पाती
इससे पहले ही 
हवा ने एक तेज़ झौंके से मेरी डरी हुई आत्मा ले ली

मेरे होंठों पर 
आखिरी संवाद की हल्की लहर अभी बनी ही थी
कि मोक्ष की निराशा ने 
मेरी काया के तपते हुए वक्ष हथेलियों में थाम लिए
मनगढ़ंत नृत्य की किसी पहेली में उलझे हुए
हवा के सुडौल हाथों में मेरे फ़ाख्ता से वक्ष

अब तुम्हें रोना होगा 
हवा ने मुझसे कहा.
और मेरे मुलायम बाल काट दिए
मैं हँस दी

मैंने सोचा आग से शायद बच जाऊं मैं
लेकिन उसमें भी तो तुम्हारी स्मृति थी
और मेरी हँसी भी

उस आग की लपटों में 
कितनी ऊँची तक चली जाती थी मेरी हँसी

मैं बेहिसाब और अर्थहीन कल्पनाओं के मोह में अपना ही तिरस्कार करती गई
क्योंकि जानती थी 
कि सच्ची कला एक मृत्यु है
प्रेम की उस कुँवारी आभा की तरह 
जिसे स्वप्न में भी छूना घृणित है

यह सब एक पागलपन की तरह है
और अँधेरा है कि अपनी उपस्थिति में 
ब्लैक होल बनता जा रहा है मेरे लिए

मैं इस अँधेरे में 
उमर खय्याम के मोहभंग को ओढ़ लेना चाहती हूँ
एक ग़ज़ल बन जाना चाहती हूँ 


[पूनम अरोड़ा]

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शिव किशोर तिवारी 

केंद्रीय कथ्य या समेकित भाव पूनम अरोरा की कविताओं में प्राय: क्षीण होता है। उसकी जगह कई अलग-अलग स्थितियाँ, टुकड़ा-टुकड़ा अनुभव और खंड-खंड विचार प्रकट होते हैं। इस तरह की कविता वस्तुत: जीवंत मानसिक और भावनात्मक प्रक्रियाओं के अधिक निकट है। पाठक को वह आस्वाद्य होगी यदि प्रत्येक स्थिति या भावखंड को अलग-अलग समझे और अन्विति की अपेक्षा को गौण बनाकर रखे।
प्रस्तुत कविता की शुरू की पंक्तियां किसी शारीरिक,भावनात्मक या बौद्धिक परिवर्तन से जुड़ी हैं -
‘मेरे पास अदृश्य हवा को रोकने का कोई तरीका नहीं था
तो मैंने उससे कहा
आओ
हवाओं
देखो मेरा पालना
और मेरे मुंडन के समय उतरे बाल वहीं एक कोने में रखे हैं
पान के पत्ते में बँधे

मैं अपना संवाद जारी रख पाती
इसके पहले ही
हवा ने एक तेज़ झोंके से मेरी डरी हुई आत्मा ले ली’

कवि का वांछित अर्थ कदाचित बहुवचन  ‘हवाओं से ही व्यक्त होता है। हवायें काव्य-सृजन के संवेग और किशोर वय (तथा उससे जुड़े शारीरिक परिवर्तनों और आवेगों) का रूपक बनती हैं।तात्पर्य यह है कि कवि अपने को इन आवेगों-संवेगों के लिए तैयार नहीं पाती। यहां पालना और मुंडन के बाल इस तैयारी के न होने की भावना के रूपक हैं, न कि वास्तविक बचपन के।

परंतु सृजन का संवेग आ ही जाता है और शंकितमना कवि की आत्मा पर अधिकार कर लेता है। इसी प्रकार का अर्थ किशोर वय के संदर्भ में भी ग्रहण करेंगे।

अगली छ: पंक्तियों में देह के बिंब हैं। मुक्ति की आशा नहीं है। स्त्री और कवि के रूप में जो नियति वाचक के हिस्से आई है वह अपरिहार्य है। इस अनुभव से उपजी हताशा कवि के दुश्चिंता से तप्त वक्ष अपने हाथों में थाम लेती है। इस बिंब का यह अर्थ हो सकता है कि हताशा ने कवि को पूरी तरह जकड़ लिया है। यह अर्थ भी संभव है कि हताशा से कवि के तप्त हृदय को एक प्रकार की ठंडक मिलती है। नियति को स्वीकारने से चित्त शांत होता है। दूसरा अर्थ ग्रहण करें तो इस बिंब में वक्रोक्ति (अलंकार नहीं) का चमत्कार है। दूसरे बिंब में स्पष्ट हो जाता है कि कवि ने वक्ष शब्द का प्रयोग बहुवचन में क्यों किया है। ‘फ़ाख़्ता-से वक्ष’ कलात्मक सृजन की बाह्य अभिव्यक्ति हैं। वे स्वयं के रचे किसी नृत्य में रत हैं।“हवा के सुडौल हाथों में वक्ष” विलक्षण बिंब है जो एक साथ सुडौल स्तनों, सृजन-शक्ति की कलात्मक अभिव्यक्ति, स्तनों और हृदय के बीच के रहस्यमय संबंध (अर्थात् हृदय के भावों का यौवन से संबंध) तथा पहले के बिंब का प्रतिपक्ष सब कुछ द्योतित करता है। कविता के इस अंश में वाचक की भाषा अधिक पटु है, इसलिए पहले भाग और इसके बीच एक कालखंड का अंतर कल्पित करना होगा। परंतु उसके बाद की ये पंक्तियां शुरू की पंक्तियों से अधिक मेल खाती हैं –

‘अब तुम्हें रोना होगा
हवा ने मुझसे कहा और मेरे मुलायम बाल काट दिये
मैं हंस दी’
लगता है जैसे हम पीछे चले गये हैं, कि ये पंक्तियां दस पंक्तियों के बाद आनी थीं न कि पंद्रह पंक्तियों के बाद। मैं इसके दो कारण सोच पा रहा हूँ – पहला यह कि यह कविता स्मृति के आधार पर लिखी गई है और स्मृतियाँ रैखिक नहीं होतीं और दूसरा यह कि जीवन के किसी चरण में बीते चरणों का एक अंश बचा रहता है।दूसरे शब्दों में,यादें किसी क्रम में नही आतीं, बेतरतीब आती हैं और जीवन का हर अध्याय पूर्व अध्यायों से कुछ लेता है। इन पंक्तियों में रोना स्त्री और कवि के जीवन की वास्तविकता का रूपक है। जीवन तो कठिन होगा ही, सहानुभूति के विस्तार के कारण कवि दूसरों के दु:खों को भी अनुभव करेगी। मुलायम बालों का काटना बचपन की निर्दोष सरलता के अंत का रूपक है। “हँस दी” अविश्वास का द्योतक है – ऐसा भी होता है कहीं?

वाचक की हँसी को अगले बिम्ब से जोड़ा है –
‘मैंने सोचा आग से शायद बच जाऊँ मैं
लेकिन उसमें भी तो तुम्हारी स्मृति थी
और मेरी हँसी भी
उस आग की लपटों में
कितनी ऊँची तक चली जाती थी मेरी हँसी’
आग कई क़िस्मों की है –दु:ख की, प्रेम की, वासना की- परंतु यहाँ कवि ने सबसे बड़ी आग प्रेम में असफलता को कल्पित किया है। वह जीवन के सारे संतापों का प्रतिनिधित्व करती है। वाचक कवि को एक भोली उम्मीद थी कि कम से कम इस ताप से बची रहेगी। पर ऐसा नहीं हुआ। आग उसकी आशा की हँसी को भी भस्म कर गई। बल्कि आशा की हँसी ने आग में घी का काम किया –“कितनी ऊँची तक चली जाती थी मेरी हँसी”। पर यह आग फिर भी प्रिय की स्मृति और अपनी हँसी का वास बनकर कवि वाचक के साथ रहेगी।
इसके बाद की छ: पंक्तियाँ स्वतंत्र कविता की तरह हैं। कवि को लगता है कि उसने अपने सृजनशील स्व को निरर्थक विकल्पों (प्रेम,सुख आदि) के फेर में नकारा है। इसका कारण वह यह कल्पित करती है कि अपनी सृजनशीलता में निमज्जित होना एक तरह की मृत्यु है (अत: कवि को उससे भय लगता है)। इस मृत्यु का उपमान यह है –

‘प्रेम की उस कुँवारी आभा की तरह
जिसे स्वप्न में भी छूना घृणित है’
एक अभौतिक तत्त्व की उपमा एक और अभौतिक तत्त्व से देना पाठक का काम आसान नहीं करता। परंतु अभिप्राय यह प्रतीत होता है : प्रथम प्रेम में शरीर-तत्त्व की अनुपस्थिति उसे सबसे सर्वाधिक पवित्र अनुभव बनाती है; वैसे ही कला में पार्थिव-शरीरी अनुभवों को उनकी शारीरिकता से मुक्त करना होता है।
अपनी वर्तमान स्थिति कवि वाचक को पागलपन और अँधेरे की तरह भ्रमयुक्त लगती है। अस्तित्व एक ब्लैकहोल बनता जा रहा है जिससे कोई किरण नहीं निकलती। कवि इस स्थिति की परिणति का अनुमान भी नहीं कर पाती, जैसे कोई ब्लैकहोल के रूप का अनुमान नहीं कर सकता। इस स्थिति में कवि की यही कामना है –

‘उमर खय्याम के मोहभंग को ओढ़ लेना चाहती हूँ
एक ग़ज़ल बन जाना चाहती हूँ’
कई विद्वानों ने उमर ख़य्याम की रुबाइयों को धर्म, ईश्वर, समाज आदि से उनके मोहभंग की उपज बताया है। कवि उसी मोहभंग की अवस्था को प्राप्त करना चाहती है और ख़ुद एक ग़ज़ल बन जाना चाहती है।ग़ज़ल बन जाने की इच्छा को इस कल्पना से जोड़कर देखिए कि कला मृत्यु की तरह है।

इस टिप्पणी का उद्देश्य कविता को पढ़ने में पाठक की मदद करना है। मैं एक व्याख्या प्रस्तावित करता हँ ओर उम्मीद करता हूँ वह पाठकों पर उद्दीपन (Stimulus) की तरह काम करेगी। कविता का साहित्यिक मूल्यांकन करना यहाँ अभिप्रेत नहीं है। फिर भी शिल्प के बारे में कुछ कहना ज़रूरी है। कविता में हवाओं को मैंने रूपक कहा है, परंतु कोई चाहे तो प्रतीक भी कह सकता है।रूपक और प्रतीक का अंतर बहुत बार स्पष्ट नहीं होता। इस कविता में भी इस तरह की अस्पष्टता है। इस अस्पष्टता के कारण कविता का आरंभ अनिश्चयपूर्ण (tentative) है। पहली दस पंक्तियों में यह कहना यह है कि वाचक को अपने अंदर होने वाले नाटकीय परिवर्तन का भान हो रहा है। उसे यह भी पता है कि यह परिवर्तन अपरिहार्य है। परंतु वह अपने को अप्रस्तुत पा रही है और उसके मन में संशय है।इस कठिन मन:स्थिति को “अदृश्य हवा” का रूपक या प्रतीक अपेक्षित नाटकीय रंग नहीं दे पाता, यद्यपि पालना व मुंडन वाले बाल शुद्ध रूपक हैं और सशक्त हैं। अनिश्चय भाषा में भी दिखाई पड़ता है –
1.       पहली पंक्ति में हवा और तीसरी पंक्ति में हवाओ।
2.       चौथी पंक्ति में ‘देखो’ के साथ मेल बैठाने के लिए “उतरे बाल वहीं एक कोने में” की जगह “ उतरे बाल जो वहीं एक कोने में” होना चाहिए था।

सौभाग्य से बीच में शिल्प पर पकड़ बेहतर हो जाती है। वक्षों के दो बिंबों में महीन तरीक़े से दो अलग-अलग मन:स्थितियों को व्यक्त किया गया है। ऊपर व्याख्या में उल्लेख हो चुका है। परंतु यहां भी “आख़िरी संवाद की हल्की लकीर” सुंदर होते हुए भी भ्रम पैदा करती है कि कविता का यह भाग कालक्रम की दृष्टि से पहले भाग के मिनटों बाद घटित होता है। यह संभव नहीं है। पालने को निकट महसूस करने वाली वय और अपने स्तनों की बात करने वाली वय में बरसों नहीं तो महीनों का अंतर चाहिए।
कविता के मध्य में आने वाले अन्य बिंब भी सशक्त हैं। “मुलायम बाल काट दिये” हृदयग्राही बिंब है। आग का बिंब मात्र तीन छोटी पंक्तियों में पूरी एक कथा कह जाता है।

आख़िरी पंक्ति पर मेरे मन में आया – ग़ज़ल क्यों,रुबाई क्यों नहीं?

[शिव किशोर तिवारी]

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