नवोत्पल गुरुवारीय विमर्श

 


Sunday, September 30, 2018

क्या आप सचमुच नागरिक हैं? - डॉ. श्रीश पाठक



वे कहते हैं पॉलिटिक्स वाहियात चीज है, दूर ही रहें तो बेहतर। मै कहता हूँ कि यह राजनीतिक अशिक्षा की स्थिति है। दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र को पॉलिटिकल लिटरेसी की जरूरत है। वे भड़क पड़ते हैं। कहते हैं, किताबों से क्या होता है, ये अरस्तू, प्लेटो आज क्या कर लेंगे, मुझे भान है कि यूपी में क्या हो रहा, केरल, तमिलनाडु, बंगाल में क्या हो रहा और जो हो रहा वो कोई किताब पढ़कर नहीं हो रहा। मैंने उनसे कहा कि चश्में और आँख का फर्क समझते हों तो समझेंगे आप कि मै क्या कह रहा, फिर अगर आप यह महसूस करते हैं कि चीजों को देखने में आँखों से अधिक दिमाग की भूमिका होती है, तब तो बहुत कहना भी नहीं पड़ेगा। कुछ तो यहाँ तक कह देते हैं कि पान वाले जियादा बता देंगे पॉलिटिक्स के बारे में तुम अपनी पीएचडी सम्हाले रखो! ऊपरी तौर पर ठीक ही है यह आरोप!

देखिए अगर आप यह सोचते हैं कि सही कैंडीडेट को वोट देने का कोई फायदा नहीं है, वोट बेकार हो जाएगा और इससे अच्छा है कि विनिंग कैंडीडेट को वोट दे दिया जाय, तो जरूरत है, पॉलिटिकल लिटरेसी की। अगर आप सोचते हैं कि नोटा एक वाहियात विकल्प है तो माफ करिएगा जरूरत है आपको पॉलिटिकल लिटरेसी की। अगर आप सोचते हैं कि वोटर अपने क्षेत्र का सांसद नहीं बल्कि प्रधानमंत्री चुनता है तो जरूरत है पॉलिटिकल लिटरेसी की। अगर आप सोचते हैं कि चुनावों में व्यक्तियों, दलों की हार-जीत आपकी हार-जीत है तो जरूरत है पॉलिटिकल लिटरेसी की। अगर आप वोट ही देने नहीं जाते, तो जरूरत है पॉलिटिकल लिटरेसी की। अगर आपको लगता है कि देश की अर्थव्यवस्था पर आपके मतदान का कोई असर नहीं होता, अगर आप एक मतदाता के तौर पर लाचार महसूस करते हैं, विकल्‍पहीन महसूस करते हैं, अगर आपको सरकार के निर्णय समझ नहीं आते, अगर आपको अपने क्षेत्र के, समाज के, देश के बड़े मुद्दे नहीं पता, अगर अपने सांसद को देखते ही भय से हाथ जुड़ जाते हैं आपके, अगर आपके क्षेत्र का अधिकारी, नेता आपको धौंस दिखाता है, अगर प्रधान गाँव से जुड़े कागज नहीं दिखाता, तो आपको जरूरत है पॉलिटिकल लिटरेसी की।

पॉलिटिकल इल्लीट्रेसी के कुछ और सिम्टम हैं, लक्षण हैं !
आप इतने निराश होंगे राजनीति से कि इसे डिनर टाइम और दफ्तर के ब्रेक्‍स में महज एक मनोरंजन के तौर पर लेते होंगे। जैसे आप चल रहे मैच के अपडेट्‍स लेते होंगे वैसे ही कभी कभी नेताओं के बयानों पर खी-खी कर लेते होंगे। देखियेगा ध्यान से चुनाव में जीतना आपकी चिंता नहीं है, पर उन्होने इसे आपकी चिंता बना दिया होगा और आप जब तब उधेड़बुन में लगे होंगे कि कौन आएगा इसबार । नोटा नेताओं को बेकार बताने का जरिया है, पर वे और आप एक सुर में नोटा को ही बेकार बता रहे होंगे। आप पार्टियों का मेनीफेस्टो बिल्कुल नहीं खंगालते होंगे। पाँच साल बाद सीटिंग सांसद के दल के घर-आए कार्यकर्ता से उसका पिछला घोषणापत्र खोलकर हिसाब भी नहीं मांगते होंगे आप, आप तो उसके या नेता जी के घर आने से ही लहालोट हो जाते होंगे। ध्यान दीजिएगा जिन मुद्दों पर आप सुबह-शाम बात करते होंगे वे मुद्दे आपको टीवी ने दिए होंगे या नेताजी के कारिंदो ने आपको सुझाए होंगे, जबकि मुद्दे आपके होने थे, आपके क्षेत्र के होने थे। कहीं आपको मजा तो नहीं आने लगा है टीवी बहस देखकर जब आपकी फेवरिट पार्टी का प्रवक्ता दूसरी पार्टी के प्रवक्ता को यह कहकर निरुत्तर कर देता है कि आपने भी तो यही किया था! एक स्थिर मजबूत सरकार की जरूरत आपको तो महसूस नहीं होने लग रही क्योंकि यह आपकी जरूरत नहीं, सत्ताखोरों की जरूरत है। देश को दो कार्यपालिका चलाती है, स्थिर और अस्थिर। स्थिर कार्यपालिका परीक्षा से आती है और यह लगातार नीतियों के अनुरूप देश को चलाती रहती है वहीं अस्थिर कार्यपालिका चुनाव से आती है और संविधान ने ही इसे प्रकृति में ही अस्थिर बनाया है ताकि यह मनमानी न करने पाए और जनता का राज कायम रहे। कहीं आप गठबंधन की राजनीति की आलोचना तो नहीं करते क्योंकि आपको लगता है इससे चलाने में मशक्कत करनी पड़ती है, बिल्कुल ठीक सोच रहे आप, लेकिन भारत जैसे देश विविधता वाले देश में यह मशक्कत जरूरी है, इससे राजनीतिक विकास होता है अन्यथा पाँच साल तक एक सरकार पर कोई अंकुश नहीं रह जाता। कहीं आप यह तो नहीं सोचते कि मध्यावधि चुनाव से बोझ बढ़ेगा और आप यह कत्तई नहीं सोच पाते कि एक नकारा स्थिर सरकार के घोटालों से कितना अकल्पनीय बोझ बढ़ेगा। आप एक मतदाता के रूप में किसी के पास नहीं जाते कि जी आप मेरे खातिर चुनाव लड़ो, लोग आते हैं आपके पास। आप अपने प्राकृतिक अधिकार का एक हिस्सा मत के रूप में उसे देते हैं ताकि वह सुशासन करे। कहीं आप भोलेपन में यह तो नहीं सोचते कि हमें सरकार की आलोचना नहीं करना चाहिए। आप से कोई दूसरा देशवासी अलग राय रखता है तो कहीं आप यह तो नहीं सोचते कि मेरा दल सत्ता में है तो मेरा काम पहले हो। आप अपने नेता की जाति देखकर अगर फूले नहीं समाते तो आप में पॉलिटिकल लिटरेसी की कमी है। आपका नेता आपके देश में रहने वाले किसी और मजहब, किसी और संस्कृति के लोगों के बारे में घृणास्पद बातें कहता है और आपको भीतर कहीं सुकून मिलता है, आप तालियाँ बजाते हैं तो आप पोलिटीकली इल्लीट्रेट हैं। आप अगर किसी धर्म या जाति आधारित दल के मेंबर बनकर किसी गर्व में हैं तो माफ करें आपने अपनी नागरिक होने की प्राथमिक योग्यता ही खो दी है, राजनीतिक अशिक्षित तो आप हैं ही!

आपके पास अपने नेता, अपने सरकार के लिए कोई सवाल नहीं है तो आप अपने देश की राजनीति के लिए निरर्थक हैं। आप यदि चमक-दमक, रौब और टीवी डिबेट देखकर अपना वोट देते हो तो आप राजनीति के खांटी गँवार हो, वे यकीनन वे भेड़ों की तरह आपका एक वोट बैंक की माफिक इस्तेमाल करते होंगे। आपको यकीनन अंदाजा नहीं होगा कि धर्म के मुद्दे सुलझाने के लिए सरकारें नहीं चुनी जातीं। आपको यह भी नहीं पता होगा कि देश के सुरक्षा से जुड़े मुद्दे सार्वजानिक तौर पर नहीं उछाले जाते। देखिए कहीं ऐसा तो नहीं कि आप सामाजिक, सांस्कृतिक व धार्मिक मामलों पर भी अपने नेता का मुँह ताकते हैं, यदि ऐसा है तो आप यकीनन राजनीतिक रूप से इस्तेमाल किए जा रहे होंगे । कैसे बलात्कार जैसा जघन्य अपराध हो गया, बार-बार हो गया, इसके बजाय यदि आप यह देखते हैं कि बलात्कार असल में हुआ या नहीं तो माफ करिए आप सामाजिक जीवन और राजनीतिक जीवन की रेखा अलग अलग बिलकुल नहीं पहचान पा रहे।

फिर देखिए, अकेले में खुद से पूछिएगा कि क्या मै देश, समाज, सेना, राष्ट्र, देशप्रेम, राष्ट्रवाद, धर्म, संस्कृति और सरकार का अर्थ ठीक-ठीक और अलग-अलग समझता हूँ अगर ईमानदारी का उत्तर 'नहीं' है तो बंधु आपके लिए पॉलिटिकल लिटरेसी की जरूरत है और हाँ यह पान की दुकान पर नहीं मिलेगी।

देश से प्यार है तो राजनीतिक रूप से शिक्षित बनिए!

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