नवोत्पल गुरुवारीय विमर्श

 


Wednesday, April 3, 2019

सभ्यता की कलावीथिका- सत्यम् सम्राट आचार्य

'सौन्दर्य' शब्द अपने आप में नवीनता का आभास कराता है और इसके विलोमज के रूप में प्राचीनता प्रतिनिधित्व करती है 'प्रौढ़ता' का.  लेकिन यहां अजंता की वीथियों में टहलते हुए यदि आपको शैलाश्रयों की भित्तियों पर बुद्ध की औदार्य मुद्राओं और अप्सराओं की भावांगिमाओं के चित्र दिखाई दें तो प्राचीनता के इस चिरंतन सौन्दर्य की तुलना आप आधुनिकता के सर्वोच्च कला प्रारूपों से कर सकते हैं.

अजंता के कला साधकों की सौन्दर्योपासना का यह प्रतिफल संसार की किसी भी महनीय कलाकृति से तुलना किए जाने योग्य है. यथार्थ में कला की 'तपस्या'अजंता के पाषाण खण्डों पर ही परिलक्षित होती है इसके अन्यत्र बाकी सारे चित्रांकन 'सौन्दर्य के प्रलाप' भर है.







सभ्यता के उस ऊषाकाल में हमारी संस्कृति जागृति की उस अवस्था में थी जहाँ तक पहुंचने के लिए युरोप को पुनर्जागरण की लम्बी प्रतिक्षा करनी पड़ी. पूरब को बर्बर जातियों का आश्रय समझने वाले युरोप के सारे औपनिवेशिक सिद्धांत ,अजंता और इसके समवर्ती अलोरा की खोज के बाद महत्वहीन साब़ित हो गये हैं.

गुफा नम्बर 10 के एक भित्तिचित्र पर ब्रिटिश अधिकारी 'जॉन स्मिथ' ने जब 1819 की तिथि सहित अपने हस्ताक्षर खुरचे ,बस तभी पूरब के सौन्दर्य ने पश्चिम का मोहभंग कर दिया था और उसके बाद "युरोपिय सौन्दर्य के सारे कला प्रतिमानों ने आत्मसमर्पण कर दिया अजंता के द्वारमण्डपों के नीचे" । 

ये मेरा दूसरा दौरा था अजंता और अलोरा के लिए.
इन्दौर के 'स्मार्ट' वातावरण में मुझे एेसी कोई देवांगना नहीं मिली जो इन चित्रों का प्रारूप बनने के लिए तैयार हों. सो मैं ईसापूर्व पांचवी शति में बनी अजंता की वीथियों में इन अप्सराओं से अनुरोध करने चला आया.







पं नेहरू की हिन्दुस्तान की कहानी में पढ़ा था ''अजंता एक स्वप्नमय विश्व है''. 
मैं इसे सभ्यता की कलावीथिका कहूंगा... समय का एक एेसा स्वर्णिम गलियारा जहां से हम टहलते हुए इस दौर में पहुंचे हैं.

यहां धर्म ने अपने 'अनुभवातीत स्वर्गीय साध्य' तक पहुंचने के लिए 'अनुभवजन्य कला' के आलंकारिक सौन्दर्य को एक 'साधन' मान लिया है. बिल्कुल खजुराहो की भांति जहां गर्भगृहों के अन्दर प्रतिष्ठित 'धर्म के सनातन सत्य' की व्याख्या कर रहे हैं देवगृह के परिक्रमापथ पर उत्कीर्णित 'कामशास्त्र के कला प्रादर्श'. कुछ वैसे ही यहाँ अजंता की वीथियों में पाषाण भित्तियों पर उकेरा गया देवांगनाओं का आलंकारिक सौन्दर्य, अनुसरण कर रहा है चैत्यगृहों में अवस्थित अमिताभ की ध्यानस्थ शिल्पाकृतियों से.

सौन्दर्य की यह चित्रात्मक अभिव्यक्ति इतनी चैतन्य है मानो आज भी चैत्यगृहों के स्तूपों में दबी बुद्ध की अस्थियों को पुनः सिद्धार्थ बनकर कपिलवस्तु जाने के लिए उकसा रही हो. हमने कथाएँ पढ़ी हैं लोकरंजक आख्यानों में, दंतकथाओं से उन्हेें सुना है, लेकिन 'सभ्यता का कथात्मक इतिवृत' एक धारावाहिक के रूप में आज भी अजंता के पत्थरों पर उकेरा हुआ है.

ये सौन्दर्य की अनुपमेय कृतियां उन्हीं जातक कथाओं की नायिकाएं हैं जो आज 2000 वर्ष बाद भी पाषाणों के रंगमंच पर अपने पात्रों को अभिनीत कर रहीं है. लेकिन इस रंगमंच के नैपथ्य में अजंता के शिल्पकारों और सर्जक कलाकारों के हाथ निश्चित ही सृष्टिकर्ता के हाथों की प्रतिकृति रहे होंगे जिन्होंने हमारी सभ्यता के इस विशाल 'एकाश्मक कैनवास' पर हमारी संस्कृति की व्याख्या को कला के अद्वितीय प्रादर्श के रूप में उपनिबद्ध किया.

मैं अजंता के इस स्वप्नलोक में तब तक जाता रहूंगा जब तक कि मुझे उन लोगों के पद्चिन्ह नहीं मिल जाते जिन्होने इसे रचा है. कालचक्र की परिधि को लांघने का यदि मुझे सुअवसर मिले तो मैं जाना चाहूंगा उस दौर में जहां वाघुर नदी के चन्द्रपरास पर अजंता के शिल्पियों की पत्नियां उनके लिए पानी भर रहीं हों, बोधिसत्व पद्मपाणी के रेखाचित्र की उपकल्पना करने वाले चित्रकार के मुख की गंभीरता को मैं देखना चाहूंगा, राहुल और यशोधरा के सामने भिक्षा मांगते बुद्ध का चित्र खींचने वाली तूलिका का सामर्थ्य देखना चाहूंगा, पूछना चाहूंगा उन शिल्पकारों से कि अवलोकितेश्वर का ध्यानस्थ मुख बनाते समय उन्होंने अपने दृढ़ औजारों को उदारता और कृपणता कैसे सिखलाई होगी, बोधिसत्वों की मुख मुद्राएँ उकेरते समय उन्होने कौन सा दर्शन पढ़ा होगा...!

फिलहाल मैं अपनी कालयात्रा यहीं स्थगित करता हूं, यदि आप इस स्वप्नलोक का भ्रमण करने के इच्छुक हैं तो अपने या अपने जैसे किसी के साथ औरंगाबाद की बस पकड़ लीजिए। 





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