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Painting by Ivan Guaderrama |
धागा मोह का
इसके पहले वह कभी चंडीगढ़ नहीं गया था।
पर अब जा रहा था। दिल्ली में यूनिवर्सिटी के दिनों के वो
उसके आख़िरी साल थे। उसे गोरखपुर से दिल्ली आए काफ़ी वक़्त हो चुका था । फिर भी उसके
अंदर का गोरखपुर अब भी ज़िंदा था। गोरखपुर यूनिवर्सिटी उसकी रगों में अब भी दौड़ता
था। वह अपने दोस्तों से अक्सर कहा करता था कि इतना आसान नहीं होता अपने होम
ग्राउंड को भुला देना। भले ही ज़िंदगी में आगे कितने ही बड़े ग्राउंड्स क्यों न मिल
जाए खेलने को होम ग्राउंड तो होम ग्राउंड ही होता है।
खैर..! दिल्ली के उस नामी यूनिवर्सिटी में दिसंबर की
सर्दियों में उसे उसकी यूनिवर्सिटी के डिबेटिंग क्लब ने पंजाब यूनिवर्सिटी में
होने वाले नेशनल डिबेट चैंपियनशिप में यूनिवर्सिटी को रिप्रेजेंट करने के लिए चुना
था। लड़के को तय करना था कि वह या तो हॉस्टल में रहकर महीने के आख़िर में पड़ने वाले
अपने जेआरएफ के एक्ज़ाम की तैयारी करे या फिर वो अपना बैक -पैक तैयार करे और कुछ
ज़रूरी किताबें लेकर चंडीगढ़ के लिए निकल पड़े। पर आदतन उसने दूसरा विकल्प चुनना ही
मुनासिब समझा। लड़के ने उसी दिन डीन ऑफ स्टूडेंट्स वेलफेयर ऑफिस जाकर एडवांस लिए और
14095 अप 'हिमालयन क्वीन' की सेकेंड एसी की टिकट करा ली। होस्टल के पीसीओ बूथ पर
एक रुपए का सिक्का डाला और घर पर बता दिया कि वो जा रहा है- चंडीगढ़। वैसे भी उसे
सिर्फ बताना ही तो होता था हर चीज़। वो सुनता किसकी था? दरअसल कॉलेज के दिनों से ही
डिबेट लड़के का पैशन था। उसे बोलना पसंद था। बचपन से ही इंट्रोवर्ट रहे इस लड़के की
यही एक चीज़ थी जो उसे औरों से जुड़ने में मदद करती थी। गोया अपने ज़िंदगी की बहुत
सारी खाली छूट गई जगहों को वो ऐसे ही बोल-बोल कर भरना चाह रहा हो। पर वह अपने
बोलने में औरों को भी सुनना जानता था। उसे मालूम था एक अच्छा लिसनर ही एक अच्छा
स्पीकर हो सकता है। उसने कई डिबेट्स कीं थी अब तक जिसमें वह तीन चौथाई से ज़्यादा
डिबेट्स जीतने में कामयाब रहा था और पैसे भी ठीक-ठाक जीते रहे होंगे। उसके तर्क अब
तक कामयाब रहे थे। इस चैंपियनशिप को इस बार पंजाब यूनिवर्सिटी और मिलिंडा गेट्स
फाउंडेशन मिलकर स्पॉन्सर कर रहे थे। ज़ाहिर है इस बार प्राइज़ मनी भी जबर्दस्त थी।
शायद लड़के ने इस वज़ह से भी दूसरा विकल्प चुना था। आख़िर 4 +1 कुल पाँच मिनट बोलकर
अगर अच्छे ख़ासे पैसे भी मिल जाएं तो बुरा क्या था? और यूनिवर्सिटी की मुद्रा पर
चंडीगढ़ शहर घूमने का लुत्फ़ अलग। मिडिल क्लास लड़के ऐसी ही कैलकुलेशन में जीते थे उन
दिनों।
उसे बचपन से ही स्पर्धाएं पसंद थीं। इन्हीं स्पर्धाओं ने
ही उसे महत्वाकांक्षी बनना सिखाया था। वह अक्सर नेपोलियन को उद्धरित करता हुआ कहता
था-"जो अकेले चलते हैं वो तेज़ी से आगे बढ़ते हैं।" बचपन से ही घर से बाहर
बोर्डिंग और होस्टल की अकेले रहने वाली जिंदगी को जैसे वो इस एक लाइन से जस्टीफाई
करता रहा हो। शाम को सारे काम पूरे करके हॉस्टल से 894 नम्बर की बस लेकर वह सीधा
नई दिल्ली रेलवे स्टेशन पहुँचा। उसका दोस्त और रूममेट उसे पहुँचाने आया था। आम
दिनों की ही तरह ही राजधानी के सबसे बड़े रेलवे स्टेशन पर वही शोर-शराबा। वही
चहल-पहल। ट्रेन के अंदर आकर उसने अपनी सीट ली। दोस्त ने गले लगाया और जीतने की
शुभकामनाएं दीं। लड़के ने इसके बदले पार्टी का वादा किया। दोस्त के जाने पर उसने
कुछ देर तक गाँधी के हिन्द स्वराज्य व माल्थस और एडम स्मिथ की थ्योरीज़ पढ़ीं। क्या
पता डिबेट में कुछ मदद मिल जाए। फिर कुछ देर बाद बत्ती बुझाई। किताब रखा और सो
गया।
लड़का तीन साल से दिल्ली में यूनिवर्सिटी के अपने होस्टल
में रह रहा था। यूपी के अपेक्षाकृत छोटे से शहर का वह लड़का जिसे दिल्ली ने इन
सालों में बहुत कुछ बदला था। पर बहुत कुछ ऐसा भी था जिसे शायद अब भी नहीं बदला जा
सका था। यही कुछ गढ़ा- अनगढ़ा ही मिलकर उसे बनाते थे। वह गम्भीर भी था और चंचल भी।
विनम्र भी था उद्दंड भी। भावुक भी ज़िद्दी भी। वह एक साथ सबकुछ था। अच्छाई और बुराई
का परफेक्ट कॉकटेल। प्रीवियस ईयर में वह टॉप कर चुका था। इस साल भी गोल्ड मेडल के
सबसे नज़दीक था। उसके दोस्त ने आगाह भी किया कि भाई थोड़ा और मेहनत कर लो। मेरे जैसे
फर्स्ट डिवीजनर बहुत होते हैं पर गोल्ड मेडलिस्ट एक ही होता है। थोड़ा कंसन्ट्रेट
कर लोगे तो यह तमगा ज़िंदगी भर के लिए तुम्हारे साथ होगा। क़िस्मत अच्छी रही तो वाइस
चांसलर मेडल भी तुमसे बहुत दूर नहीं है। और फिर तुम्हारे जेआरएफ एक्जाम सर पर हैं।
क्या तुम्हें अब फैलोशिप की चाहत नहीं रही? लड़के ने दोस्त की चपत ली और समझाया -
"मेरे यार तुम्हारी मोहब्बत सर आँखों पर।" लेकिन प्रीवियस ईयर में भी
आख़िर मैंने यह सब करते हुए ही मार्क्स लाए हैं। अभी तो समेस्टर ख़त्म ही हुआ है।
काफी वक़्त है फाइनल एक्ज़ाम के लिए। और फिर जिस वाइस चांसलर मेडल के लिए तुम मुझे
सदाएं दे रहे हो उसके लिए ओवर ऑल परफॉर्मेंस ज़रूरी है। ऐसा समझो कि यह डिबेट भी
इसी का हिस्सा है। और फैलोशिप तो इस बार मैं ले ही लूँगा।दरअसल लड़के में
आत्मविश्वास बहुत था। यही उसकी अच्छाई भी थी और कमी भी। पूर्वांचल के लड़कों में
ओवर कॉन्फिडेंस एक कॉमन इंग्रेडिएंट्स है। यह कोई नई चीज़ नहीं थी।
ख़ैर। ट्रेन रुकी तब तलक सुबह हो चुकी थी । लड़के ने आँखे
खोलीं तो खिड़की से स्टेशन पर पीले पट्ट पर बड़े-बड़े अक्षरों में लिखा देखा- चंडीगढ़!
समुद्र तल से ऊँचाई 330 मीटर। वह पहली बार पंजाब की धरती पर आया था। उसने महसूस
किया कि पंजाबी बहुत अच्छे होस्ट होते हैं। और खुश मिज़ाज भी।स्टेशन पर निकलते ही
पंजाब यूनिवर्सिटी का स्वागत काउंटर था। पंजाबी परिधान में एक खूबसूरत लड़की ने
रैप्ड पेपर में आधा रैप किया हुआ लाल गुलाब का फूल देकर उसका स्वागत किया। लड़का
मुस्कुराया और अभिवादन का प्रत्युत्तर अभिवादन से दिया। सामने ही वॉल्वो खड़ी थी।
देश के अलग-अलग यूनिवर्सिटी से काफी प्रतिभागी आ रहे थे। जो आ चुके थे उन्हें इसी
बस में बैठकर यूनिवर्सिटी के गेस्ट हाउस जाना था। लड़का भी इसी बस में जाकर बैठ
गया। ज्योहीं ड्राइवर ने दलेर मेहंदी के पंजाबी गानों का बैस बढ़ाया सबके चेहरों पर
खुशी उछल सी गई। बस में बैठे सारे लड़के -लड़कियां जो आज यहां हैं कल को न जाने कहाँ
होंगे अपनी-अपनी जिंदग़ियों में। ऐसा लड़के ने सोचा। सबके अपने संघर्ष होंगे। सबकी
अपनी दुश्वारियां होंगी। सबके अपने जद्दोजहद होंगे। वह महसूस कर पा रहा था कि वह
अपनी ज़िंदगी के उस मिडवे से गुज़र रहा है जहां ये वक्त दुबारा नहीं आने वाला था।
कोई यू टर्न नहीं था वहां। उसे रंग दे बसंती का वह संवाद याद आया जिसमें आमिर ख़ान
का क़िरदार कहता है-" जब तक हम कैम्पस में होते हैं, हम दुनिया को नचाते हैं।
एक बार कैम्पस से बाहर आ जाने पर वही दुनिया हमें नचाती है।"
कुछ ही देर बाद बस रुकी। और उसके ख़्याल भी। पंजाब
यूनिवर्सिटी का शानदार कैम्पस। कैम्पस की सड़कें ऐसीं कि फेरारी दौड़ जाए। नवीन
स्थापत्य से बनी यह वही यूनिवर्सिटी थी जहां प्राइमिनिस्टर मनमोहन सिंह स्टूडेंट
रहे थे। जगजीत सिंह ने तरुणाई में यहां कितनी गजलें सुनाई होंगी अपने दोस्तों को।
और फिर अनुपम खेर जो हिमाचल से अपने घर से पैसे चुराकर यहां आ गए थे एक्टिंग सीखने
के लिए। परिसर नाम के ही मुताबिक ऊर्जा से भरा हुआ था। कैम्पस में ही चंडीगढ़
मेडिकल कॉलेज के सामने ही यूनिवर्सिटी का गेस्ट हाउस था। बस रुकी तो बस से उतरते
ही पीछे से एक मद्धम सी आवाज़ आई। एक्सक्यूज़ मी.! लड़के ने मुड़कर देखा। एक
पार्टिसिपेंट लड़की ने बहुत ही विनम्र स्वर में कहा - यह बुक शायद आपकी है। सीट पर
रह गई थी। लड़के ने थोड़ा असहज होकर कहा। "ओ हाँ..। थैंक्स । मेरी ही बुक है।
मैं अक़्सर अपनी चीजें भूल जाया करता हूँ। शुक्रिया आपका.!" बात -चीत में लड़का
-लड़की बस से उतरकर थोड़ी दूर आ गए। ठंड बहुत थी सो लड़के ने जल्द ही विदा ली और
शुक्रिया कहकर आगे बढ़ गया।
लड़के ने गेस्ट हाउस के काउंटर पर अपने नाम के आगे साइन
किया। चाभी ली और कमरे पर जाकर एक बार फिर से सो गया। सोना जैसे होस्टल में रहने
वालों का राष्ट्रीय शगल हो। हाउस कीपिंग असिस्टेंट ने दरवाज़े और फर्श के बीच नीचे
से उसके कमरे में अख़बार सरका दिए थे। उसे ब्रेक फास्ट के लिए कॉल दी गई फिर भी वह
सोया ही रहा। दोपहर तक सोता ही रहा वो। फिर लंच के ठीक पहले जागा। आँखे मीचकर उसने
खिड़की से पर्दा सरकाया तो उसे वही लड़की दिखाई दी जिससे सुबह उसकी मुलाकात हुई थी
और बातचीत में तीन बार उसने उसे शुक्रिया कह डाला था।
वह मन ही मन मुस्कुराया। दिन बहुत ख़ुशगवार था आज। धूप
निकल चुकी थी। मौसम में सर्दी कम हो चली थी। बाहर कैंपस में खिले हुए फूल एक अलग
ही छटा का निर्माण कर रहे थे। बालकनी से आकर उसने कॉफी का मग टेबल पर रखा और डायरी
के कुछ पन्ने भरे। अब उसे इंतज़ार था तो उस मौके के लिए जिसके लिए वह यहां तक आया
था। पर उसे क्या मालूम था कि आगे उसे एक साथ दो-दो स्पर्धाओं में होना है। जीवन
में ऐसे ही बहुत कुछ होता है। एकदम अचानक और अप्रत्याशित..! बिना किसी आहट और
पूर्व सूचना के। बिना किसी अतिरिक्त प्रयास के। वह आने वाले पलों से बेख़बर था।
उसे प्रेम में होना था...!
***
लड़की कश्मीर के नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी
(एनआईटी) की स्टूडेंट थी। एनआईटी और कश्मीर यूनिवर्सिटी के कैम्पस लगभग आमने-सामने
ही थे। इसलिए दोनों ही इंस्टीट्यूट्स के स्टूडेंट्स एक ही साथ आए थे चैंपियनशिप
में। लड़की कम्युनिकेशन साइंसेज में ग्रेज्यूएशन कर रही थी। इस दिसंबर के बाद बस एक
ही सेमेस्टर बचा था उसका। फिर तो अगले कन्वोकेशन में फाइनल डिग्री मिल जानी थी
उसे। उसकी उम्मीदों की डिग्री। .......उसने लड़के को बताया था कि चेनाब गर्ल्स
हॉस्टल के साउथ विंग में फर्स्ट फ्लोर पर उसका कमरा था। जिसकी बॉलकनी श्रीनगर के
खूबसूरत डल झील के आगे खुलती थी। लड़की अक्सर एक हाथ में कश्मीरी कहवे का प्याला और
दूसरे हाथ में कोई क़िताब लेकर उसी बालकनी में घण्टों बैठी रहती। वह डल झील में
मंथर गति से चलते शिकारे को देखा करती और उन प्रेमी जोड़ों को भी जो अपनी नई-शादियों
के बाद अपने मधु-उत्सव के लिए यहां आया करते थे। वह दूर बैठकर उनकी उमंगों को साफ़
पढ़ सकती थी। जब कभी पश्चिम में डल झील के पानी में सूरज डूबता तो कई बार उसका दिल
भी उसके साथ डूब जाता। उसके अपने कैंपस में ही चिनार के सैकड़ों दरख़्त थे। सर्दियों
में जब सारे पत्ते झर जाते थे तो लड़की को उन सूखे पत्तों पर चलना बहुत पसंद था।
उसने कहा था-"ये पत्ते एक दिन मिट्टी हो जाएंगे और किसी बारिश में यही पत्ते
मिट्टी बनकर कभी झील में घुल जाएंगे। जैसे हमारी स्मृति एक वक़्त के बाद सोग बनकर
हमारे ही भीतर घुल जाती है। उसने बहुत अधिक तो नहीं बताया था अपने बारे में पर
लड़के को अहसास था कि कुछ तो ख़ालीपन रहा होगा उसकी ज़िंदगी में।
लड़की साइंस की स्टूडेंट थी पर उसे म्यूज़िक,कविता और
ओरेशन में भी इंटरेस्ट था। उस रोज़ पीले कमीज़ और सलवार में वो लड़के को ऐसे लग रही
थी जैसे पंजाब के ही किसी गाँव की तलहटी में किसी खेत में खिला हुआ सूरजमुखी का
फूल। उसे लगता जैसे लड़की की धनुषाकार पलकों में चाँद ने अपने सारे अमावस छुपा रखे
हों। उसके खुले हुए गेसू जैसे घटाओं से मिलकर कोई साज़िश सी कर रहें हों। उसने
कश्मीरी शायर आगा हस्र कश्मीरी का ही वह शेर हमख्याल किया कि "ये खुले-खुले
से गेसू इन्हें लाख तू सँवारे। काश ये मेरे हाथ से संवरते तो कुछ और बात
होती।" लड़के ने अपने भीतर एक गहरे "काश" को महसूस किया ..! उसने यह
भी अहसास किया कि उसने आज तक ख़ुद को किसी के #मोह में इतना बंधा महसूस नहीं किया था।
मोह के उस धागे ने उसके समूचे अस्तित्व को बाँध लिया था। वह एक गहरे मोहपाश में
उतर चुका था। जिससे बाहर निकलना उससे अब सम्भव न था। यूनिवर्सिटी में बहुत लड़कियां
उसकी दोस्त थीं। बराबरी के बहुत सारे रिश्ते थे । पर उसका ऐसे अहसास से गुज़रना
पहली बार हो रहा था। अमूमन उसकी नज़रों ने लड़कियों को ऊंचे हील की सैंडिल में ही
देखा था पर इस लड़की ने कई सारे पतले स्ट्रिप वाई फ्लैटन हील की ब्लैक सैंडल पहन
रखी थी। गोया कोई गिलहरी उसके पाँवों से लिपट कर अठखेलियाँ कर रही हो। उसके
कर्ण-पटों पर लटकते हुए वर्तुल ईयर रिंग्स ऐसे थे जैसे उसने अपने कानों से समूचा
ग्लोब ही उठा रखा हो। उसके गालों के डिम्पल प्रीति जिंटा से भी खूबसूरत लगे थे उसे
। उसने देखा कितनी ही लड़कियों के बीच वह अकेली ही ऐसी लड़की थी जिसने कोई मेक-अप
नहीं किया था और हमेशा सबसे अलग और एकांत में ही बैठी मिलती उसे। इन सबसे ज़्यादा
उसको सम्मोहन था उसकी निर्दोष- चपल मुस्कान का। एक बच्चों सी मासूम हँसी हर वक़्त
उसके चेहरे पर तैरती रहती थी। वह लड़की की इस सादगी के आकर्षण से खुद को बचा न सका।
उसे शक हुआ था कि शायद वह प्यार में है..!!
लड़के ने गेस्ट हाउस के बूथ से दिल्ली में होस्टल के अपने
दोस्त को फ़ोन किया। दोस्त को उम्मीद थी कि लड़का कॉम्पीटिशन के बारे में अपनी
तैयारी को लेकर बात करेगा। पर लड़के ने छूटते ही कहा। यार पार्टनर.! मुझे लगता है..
मैं प्यार में हूँ। दोस्त हँसते-हँसते पीसीओ बूथ पर ही ढह गया। होस्टल में दोस्त
ऐसे ही होते हैं। ख़ासकर ऐसे मामलों में। दोस्त ने कहा-"तुम और प्यार।"
उसने लड़के को कहा- आर यू सीरियस। लड़के ने जवाब दिया -" आय अम डैम सीरियस यू
फकिंग।" तुम्हें आज तक कभी मेरी किसी बात का यकीन हुआ है? लड़के को नाराज
देखकर दोस्त ने अपने को रोककर थोड़ी गम्भीरता से इस बार कहा-"सॉरी दोस्त। मैं
तो यूँही मज़ाक कर रहा था।" बोलो क्या कह रहे थे ? लड़के ने कहा-" कुछ
नही। गो टू हेल एंड जस्ट यूज योर फकिंग हैंड्स।" और यह कहकर उसने फोन काट
दिया। उसे दोस्त का मज़ाक नागवार गुजरा था। उसने बूथ वाले को पैसे दिए और अपने कमरे
पर वापस आ गया।
सुबह के आठ बज रहे थे। आज दस बजे तक सारे प्रतिभागियों
को डिबेट का विषय दे दिया जाएगा। फिर अगले दिन औपचारिक रूप से10 बजे से शुरू होगा
वह वक्तृत्व। वह चैंपियनशिप जिसका उद्घाटन पंजाब के गवर्नर करने वाले थे और जिसमें
उन सारे स्टूडेंट्स में से किसी एक को चमचमाती ट्रॉफ़ी मिलनी थी, और साथ में 1 लाख
रुपए का कैश प्राइज़ भी। लड़के ही क्या प्रतिभागियों के लिए भी इसका आकर्षण कम न था।
लड़के के पास कुल जमा लगभग 24 घण्टे थे और उसे प्रेम और
स्पर्धा दोनों की परिणति तक जाना था...!
***
सुबह के दस बजते ही पंजाब यूनिवर्सिटी के रजिस्ट्रार के
हस्ताक्षर से सभी प्रतिभागियों को औपचारिक रूप से डिबेट का विषय बता दिया गया था।
सभी प्रतिभागियों को रजिस्ट्रार ऑफिस से ही एक सीलबंद लिफाफा मिला था। जिसमें
डिबेट की सारे नियम व शर्तें बताई गईं थीं। कल 10 बजे डिबेट शुरू होनी थी इसलिए
सबके पास बस वही 24 घण्टे थे। डिबेट का विषय था-Health is wealth is a fallacy for
the youth in modern society. जिसका हिंदी रूपांतर था- "आधुनिक समाज में
युवाओं के लिए स्वास्थ्य ही धन है का कथन महज़ एक छलावा है।" सारे डिबेटर्स को
या तो इसके पक्ष में बोलना था या विपक्ष में। विषय मिलते ही लड़के ने सोचा कि उसने अब
तक जो भी पढ़ा था यह विषय तो उसके एकदम उलट है। कई बार दिखने में बेहद आसान से विषय
बोलने और तर्क इकट्ठा करने के लिहाज़ से बहुत मुश्किल साबित होते हैं। यहां भी कुछ
ऐसा ही था। लड़के ने हिन्द स्वराज्य से लेकर माल्थस और मार्क्स और एडम स्मिथ तक की
रीडिंग ले ली थी। भारत, योजना और कुरुक्षेत्र के सभी पढ़े जा सकने वाले अंक पढ़ लिए
थे । पर किसी काम के नहीं निकले। डिबेटर्स के साथ अक्सर ऐसा होता है। एक अच्छा
डिबेटर अपनी डिबेट और ज़िन्दगी दोनों में ही ऐसी अप्रत्याशित स्थितियों के लिए
तैयार रहता है।
चैंपियनशिप में अब तक देश भर के 92 विश्वविद्यालयों और
संस्थानों के डिबेटर्स ने अपना रजिस्ट्रेशन करा लिया था। ये सारे डिबेटर्स अपनी
-अपनी यूनिवर्सिटी में एक सलेक्शन प्रोसेस से गुजरकर यहां नेशनल खेलने पहुँचे थे।
इसलिए अमूमन सभी अच्छे प्रतिस्पर्धी साबित होने वाले थे। डिबेट का टॉपिक मिलते ही
अमूमन हर लड़का-लड़की पंजाब यूनिवर्सिटी के उस लायब्रेरी की ओर भागे जिसका उद्घाटन
कभी पंडित जवाहरलाल नेहरू ने किया था। सभी गए पर लड़का नहीं गया। दरअसल सारे
प्रतिभागी जल्द से जल्द लाइब्रेरी और इंटरनेट कैफ़े जाकर अधिक से अधिक संदर्भ और
तथ्य जुटा लेना चाहते थे ताकि बाकी बचे समय का उपयोग वो अपने डिबेट के रिहर्सल और
उसे धारदार बनाने में कर सकें। लड़के ने अपने कमरे की खिड़की से लड़की को भी जाते हुए
देखा। उसने देखा कि लड़की पुल ओवर और अपने दस्ताने पहने हाथों में ढ़ेर सारी किताबें
लिए दोस्तों से बातें करती हुई चली जा रही थी। वह उसे दूर तक जाते हुए एकटक देखना
चाहता था। वह उसे तब तक देखना चाहता था जबतक कि वह उसकी आँखों से ओझल न हो जाए। पर
उसने ऐसा नहीं किया। उसने ख़ुद को आदेशित किया कि या तो वह अभी आकर्षण में हो सकता
है या फिर स्पर्धा में। उसे मुश्किल हुई। पर वह अपने भीतर के डिबेटर को जगा पाने
में सफल रहा।
लड़के ने कमरे के दरवाजे -खिड़की सब बन्द किए। बालकनी और
कमरे के सारे पर्दों को खींचकर आपस में मिला दिए। कमरे में गहरे अँधेरे का सृजन
करने के बाद वह कुर्सी पर बैठा और टेबल लैंप जलाया। इस सृजित अँधेरे के बीच टेबल
लैम्प की एक मात्र रोशनी से वह खुद को केंद्रित महसूस कर पा रहा था। उसने लिफ़ाफ़ा
खोलकर डिबेट के नियमों को फिर से पढ़ा और उसे आत्मसात कर अपनी तैयारी शुरू की। उसने
तय कि वह अपने पहले तीन मिनट की डिबेट आज दिनभर की मेहनत से तैयार किए स्क्रिप्ट
से बोलेगा और अंतिम के दो मिनट एक्सटेम्पोर बोलेगा। मतलब अंतिम दो मिनट में वह
लोगों को सुनेगा। उनके मजबूत तर्कों को चिन्हित करेगा। और फिर उन्हें काउंटर करते
हुए धराशायी करेगा। लड़का अपने वक्त का नेशनल डिबेटर रहा था। वह अनुभव और
आत्मविश्वास से लबरेज़ था। उसकी नज़र अब अर्जुन की तरह मछली की आँख पर थी। फिर भी वह
जानता था कि ऐसे नेशनल लेवल की डिबेट्स का स्तर क्या होता है। वह किसी भी चूक से
बचना चाहता था।
लड़के ने होस्टल से अपने साथ लाई किताबों, अख़बार के
संपादकीयों और पत्रिकाओं से तथ्य जुटाने शुरू किए। लगभग 5 घण्टे की मशक्कत के बाद
भी वह डेढ़ मिनट से ज़्यादा का स्क्रिप्ट तैयार नहीं कर सका था। उसने मानसिक रूप से
खुद को श्लथ और बंधन मुक्त होने दिया। इतने सालों की डिबेट्स में वह जानता था कि
खुद को कैसे दबाव और नर्वस होने से बचा कर रखना है। वह मानसिक रूप से मज़बूत था।
शाम के 5 बज गए थे। उसने ध्यान भंग न हो इसलिए गेस्ट हाउस की कैंटीन से कॉफी
मंगाने की जगह इलेक्ट्रिक कैटल ऑन किया। ख़ुद ही कॉफी बनाई और कॉफी का मग लेकर बाहर
बालकनी में आ गया। उसने देखा लगभग सारे डिबेटर्स वापस अपने-अपने कमरों की तरफ़ आ
रहे थे। पर उसे वह लड़की कहीं नहीं दिखी। उसने यूँ ही ख़्याल किया कि कहीं अगर फाइनल
स्लॉट में मुकाबला उसके और लड़की के बीच ही हुआ तो? क्या वह लड़की को जीतते हुए
देखना पसंद करेगा। या फिर लड़की से खुद को हारते हुए देख सकेगा। उसने महसूस किया कि
वो अब भी दो विरोधी भावनाओं के साथ है। उसने लड़की के लौटते हुए आने का इंतज़ार नहीं
किया। कॉफी पीकर उसने एक बार फिर से अपने कमरे में अँधेरा किया और सो गया। अगले
चार घण्टे वो सोता ही रहा। लगभग नौ बजे उठा। नीचे जाकर मेस में डिनर किया और फिर
वापस कमरे में आ गया। उसे पता था कि उसकी स्क्रिप्ट अभी भी डेढ़ मिनट से ज़्यादा की
नहीं है। अब उसने रात के साढ़े नौ बजे यूनिवर्सिटी की लाइब्रेरी जाना तय किया। वह
देर रात तक लाइब्रेरी में किताबों में डूबा रहा। उसने तीन की जगह लगभग पाँच मिनट
की स्क्रिप्ट तैयार कर ली थी।अपेक्षित तर्कों और तथ्यों का व्यूह रच लिया था । अब
उसे इंतज़ार था तो स्पर्धा के मुख्य पटल पर पहुँचने का। लड़का पंजाब यूनिवर्सिटी के
उस 24*7 लाइब्रेरी से अपने कमरे के लिए जाने के लिए निकला ही था कि उसने सोचा
क्यों न इंटरनेट भी एक्सेस कर लिया जाए। वह इंटरनेट सेक्शन में घुसा ही था कि उसकी
मुलाकात लड़की से हो गई। इतनी रात में लड़की से इस तरह की मुलाकात के लिए वह बिल्कुल
भी तैयार न था। पूर्व- परिचय की पृष्ठभूमि में लड़की ने लड़के को मुस्कुराकर अपने
अभिवादन को अभिव्यक्त किया। लड़के ने भी उतनी ही विनम्रता से खुद को अभिव्यक्त
किया। लड़के ने लड़की से कहा-
"इतनी रात गए आप यहां। लगभग सभी जा चुके हैं। कोई
नहीं दिख रहा यहाँ"
लड़की ने जवाब दिया -
" नहीं लाइब्रेरी काउंटर पर असिस्टेंट अब भी बैठा
है। और आप भी तो यहीं हैं। नहीं?"
लड़के ने थोड़ा असहज होकर कहा-
" ओ¿¿¿हाँ। कहना तो सही है आपका।"
फिर लड़की ने ख़ुद ही जोड़ते हुए कहा-
"अक्चुअली मैं सुबह ब्रेकफास्ट के बाद ही आ गई थी
यहां। तब से यही हूँ।
"दैट्स इम्प्रैसिव।" लड़के ने कहा।
लड़की ने जवाब में कहा-
"अगर आपको बहुत वक्त न लगे तो हम अपने -अपने कमरों
को साथ लौट सकते हैं"
"जी..जरुर..!" "मुझे ज़्यादा वक़्त नही
लगेगा।" लड़के ने कहा।
लड़के ने पचीस से तीस मिनट गूगल करके कुछ आँकड़े जुटाए।
कुछ तथ्य नोट किए और पास के ही क्यूबिकल में बैठी लड़की को चल सकने के लिए सूचित
किया। लड़की ने दस्ताने पहने। किताबें लीं। और लड़के के साथ बाहर आ गई।
अमूमन रोज़ इस वक्त तक फैला रहने वाला कुहरा आज नहीं था।
आसमान साफ़ था। कुछ तारे आसमान में ज़रूर दिख रहे थे। पर चाँद का तो कहीं अता-पता
नहीं था। लड़के ने अपने मन में ही कल्पना की। चाँद आज ज़मीन पर है। बिल्कुल मेरे बगल
में। कुहरा न होने के बावजूद रात में हवा तेज चलने से ठंड बहुत थी। लड़का हाफ
स्वेटर और जीन्स में ही लाइब्रेरी तक आ गया था। होस्टल के लड़के ऐसी बेवकूफियां
अक्सर करते हैं। लड़की ने महसूस किया कि लड़के को ठंड लग रही है। उसने लड़के से कहा-
"मेरे पास शॉल है। आपको ठंड लग रही है। आप ले सकते
हैं।"
"नहीं मैं ठीक हूँ।" लड़के ने कहा।
"नहीं आप बिल्कुल भी ठीक नहीं हैं। मुझे कश्मीर में
अपने कॉलेज में ठंड और बर्फ की आदत है। मैं हमेशा एक्स्ट्रा शॉल या कपड़े लेकर चलती
हूँ। मैं इसे हमेशा के लिए नहीं दे रही। बेशक आप इसे बाद में मुझे लौटा सकते
हैं।"
लड़के के पास कोई जवाब न था। उसने लड़की से शॉल लिया और
बहुत मद्धम स्वर में कह सका-
"थैंक्यू!" दरअसल लड़के को वाक़ई ठंड लग रही थी।
लड़की ने पूछा-
"आप अगेंस्ट में बोल रहे हैं या फेवर में?"
"आज तक हर डिबेट अगेंस्ट में बोला है। पर इस बार
फेवर में बोल रहा हूँ।" लड़के ने कहा।
"दैट्स ग्रेट..!" लड़की ने कहा।
"और आप?" लड़के ने पूछा।
"मैं अगेंस्ट" लड़की ने कहा।
लाइब्रेरी से होस्टल की दूरी लगभग 800 मीटर रही होगी। पर
इस 800 मीटर की दूरी में लड़के का दिल 800 बार धड़का होगा। रात के दो बज रहे थे।
लैम्प पोस्ट की छितराई हुई रोशनी में लड़का -लड़की आपस में बातें करते चले जा रहे
थे। उनका साथ चलना ऐसा था मानो धरती और चाँद ने अपने बीच की सदियों पुरानी दूरियां
मिटाकर साथ चलना तय कर लिया हो। लग रहा था जैसे आज चाँद और धरती दोनों एक ही कक्षा
में थे। दोंनो की अपनी -अपनी रोशनियाँ थीं। दोनों ही एक-दूसरे को आलोकित कर रहे
थे। दोनों ही एक-दूसरे पर निर्भर थे। और दोनों ही एक दूसरे से स्वतंत्र थे। दोनों
के बीच गुज़र रहा वह क्षण प्रेम का प्रसव-क्षण था। उस रोज़ वो दोनों ऐसे लग रहे थे
मानो वह प्रकृति की अपनी संतानें थीं जिनकी रक्षा प्रकृति ख़ुद अपने दोंनो हाथों से
कर रही थी। प्रेम ऐसा ही होता है। न केवल अपना बल्कि अपने आस-पास का समूचा वातावरण
ही ईश्वरत्व से भर देता है। कुछ देर बाद लड़का-लड़की लैम्प पोस्ट की रोशनी में दिखाई
देना बंद हो गए। लड़का-लड़की अपने-अपने कमरों को पहुँच गए थे। लड़का और लड़की इस बात
से लगभग अनजान थे कि उन्हें कोई एक ताकत #मोहकेधागे में बाँधती जा रही थी..!
फिर भी वे नहीं जानते थे कि प्रेम के इस मोहपाश को आगे
बहुत ह्रदय-विदारक होना था। जीवन की गति को वह समझ पाते इससे पहले ही उनमें से
किसी एक को बिछड़ जाना था।
***
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Source: Dreamstime |
चैंपियनशिप शुरू होने को थी और लड़का अब भी लड़की के
ख़यालों में खोया हुआ था। मेधा और प्रज्ञा (ब्यूटी विद ब्रेन) के ऐसे संयोग वाली
लड़की से मिलकर लड़के का अस्तित्व जैसे पिघल सा गया था। लड़के को ऐसा लगता था कि जैसे
लड़की अपने नेह की चूनर में उसको साथ लेकर बादलों के बीच चली आई हो। दोनों कभी
कश्मीर के किसी ट्यूलिप गार्डन में एक दूसरे की बाँहों में बाँहे डाले साथ चल रहे
होते तो कभी डल झील पर जमी बर्फ़ पर दौड़ रहे होते। वह काफ़ी देर तक लड़की के साथ
तितलियां पकड़ने की कोशिशें करता रहा। अपने ख़्वाब में वह झेलम के पानी में लड़की के
पाँवों में पाँव डाले बहुत देर तक बैठा रहा। वह दिन भर की उछल-कूद से थक चुकने के
बाद चिनार की छाँव में लड़की के काँधे पर सर रखकर सो गया था। उसने महसूस किया कि
लड़की ने कुछ देर बाद उसका सर आहिस्ता से अपनी गोद में ले लिया था और उसके चेहरे को
अपने गेसुओं से ढँक लिया था। शायद कि वह लड़के को सूरज की तपिश से बचाना चाह रही
हो। लड़के को महसूस हुआ कि जैसे उसके माथे पर चमेली का कोई फूल गिरा हो। लड़की के उस
बोसे ने जैसे लड़के के शरीर और आत्मा के बीच सदियों से टूटे पड़े तारों को आपस में
जोड़ दिया हो। उसे ऐसे लगा कि जैसे किसी मस्ज़िद में किसी नन्हें से बच्चे ने अपनी
कोमल आवाज़ में अज़ान दी हो। या कि जैसे किसी नव परिणीता ने अपने मेहंदी लगे हाथों
से पूजा के लिए मंदिर की घण्टी बजाई हो।
प्रेम का प्रथम क्षण ऐसा ही होता है। कल्पनाओं के अनन्त
आकाश में डैने फैलाए फ़ीनिक्स पक्षी की तरह। वो पक्षी जो कभी मरता नहीं । जो
बार-बार अपनी ही राख से जन्म लेता रहता है...!
स्पर्धा शुरू हो चुकी थी। लड़की को 21 वें नम्बर पर बोलना
था। पँजाब यूनिवर्सिटी का सेंट्रल हॉल ऑडिटोरियम लड़के-लड़कियों से खचाखच भरा हुआ
था। इतनी भीड़ के बाद भी ऑडोटोरियम में खड़े होने तक की जगह न थी। जैसा कि हर होस्ट
कैम्पस में होता है कि वे अपने टीम को सपोर्ट करते हैं और दूसरी टीमों की हूटिंग।
लड़के-लड़कियों की यही नस्ल यहां भी थी। पंजाब यूनिवर्सिटी के लड़के -लड़कियां अपने ही
टीम के डिबेटर को सपोर्ट कर रहे थे। उनकी हूटिंग जबर्दस्त थी।लड़के को चिंता थी कि
इन सबके बीच लड़की को बोलना था और कहीं इससे उसका ध्यान भंग न हो। यह जानते हुए भी
कि लड़की उसकी प्रतिस्पर्धी है लड़का उस लड़की के लिए परेशान था। वह उसे हारते हुए
नहीं देखना चाहता था। पर जब लड़की ने बोला तो क्या ख़ूब बोला। वह उसके तर्कों, उसके
बोलने के अंदाज़, उसके उच्चारण, उसकी देह-भाषा या कि उसकी हर अदा का क़ायल हो चुका
था। लड़की के बोलने के वे पाँच मिनट तथ्यों, तर्कों, विचारों और संप्रेषण के बुलेट
ट्रेन की तरह थे। उसके बोलना शुरू करने के मिनट भर के भीतर ही यूनिवर्सिटी के सारे
स्टूडेंट अपनी हूटिंग बंद कर चुके थे और उन सबने उसकी डिबेट पूरी होते-होते उसका
करतल ध्वनि से स्वागत किया था। लड़के ने महसूस कर किया कि अब उसे लड़की की चिंता
नहीं बल्कि अपनी चिंता करनी चाहिए। लड़का स्पर्धा और प्रेम के एक नितान्त अनचीन्हे
से मिश्रण में था। लड़के का दिल प्रेम और स्पर्धा के अलग-अलग परिणामों को लेकर
धक-धक कर रहा था।
कुल आठ सत्रों में चलने वाली चैंपियनशिप में देश के
अलग-अलग हिस्सों से आए 92 प्रतिस्पर्धियों में लड़के का नम्बर 52 वां था। वह यह
जानकर हैरान था कि पिछले बार के चैंपियनशिप की रनर-अप वह लड़की ही थी जिसके आकर्षण
और प्रेम में वह आकंठ डूबा था। उसे थोड़ी तल्ख़ी हुई कि बीती रात जब दोनों लाइब्रेरी
से साथ आ रहे थे तो यह बातलड़की ने लड़के को नहीं बताई थी। प्रेम और स्पर्धा यहां इस
तरह से आसपास में मिल गए थे कि दोनों की अलग-अलग पहचान करना मुश्किल था। लड़की के
मंच से उतरने पर उसने दूर से ही उसे मुस्कुराते हुए हाथ हिलाकर अभिवादन किया। लड़की
ने भी उतनी ही गर्मजोशी से मुस्कुराकर उसे अभिवादन किया।
लड़की ने डार्क ब्लैक कलर की जींस और व्हाइट कलर की बॉटम
डाउन शर्ट पहन रखी थी। साथ ही ऊपर ब्लैक कलर की ब्लेज़र भी जिसके बाईं ओर नेशनल
स्कूल ऑफ टेक्नोलॉजी का लोगो और ध्येय वाक्य उत्कीर्ण किया हुआ था। वातावरण में
ठंड इतनी थी कि ऑडोटोरियम के अंदर और बाहर के तापमान में कोई ख़ास अंतर नहीं रह गया
था। फिर भी लड़की के मस्तक और गालों पर पसीनें की बूंदें इस तरह बाहर आ गईं थीं
जैसे हरी घास पर ओस की निकल आईं बूँदे। लड़की ने सीट पर बैठे हुए ही क्लचर को मुँह
में दबाकर अपने बालों को संवारा और फिर उसे निकालकर फिर से बालों में लगा लिया।
उसने अपने कानों के कुंडल निकालकर अपने हाथ में ले लिए थे। वो कुंडल भले ही लड़की
के हाथों में था पर वह चुभ लड़के को रहा था। यह चुभन कितनी गहरी होती है सिर्फ़
प्यार करने वाले जानते हैं। वह लड़की की चढ़ती-उतरती धड़कनों को दूर बैठकर भी महसूस
कर पा रहा था। लगता था जैसे ये धड़कनें उस हॉल को गिरा देंगी।
लड़के का का भी क्रम आया और उसने भी क्या ख़ूबकर ही बोला
था। उसके बोलने से साफ़ पता चला था कि उसने एक ही साथ दो स्पर्धाओं के लिए बोला था।
उसके बोलने तक पूरे सभागार में सन्नाटा पसरा रहा। अंग्रेजी में जिसे कहते हैं पिन
ड्रॉप साइलेंस। लड़के ने अंतिम दो मिनट अपनी शैली के मुताबिक एक्सटेम्पोर या आशु
में बोले थे।और इन अंतिम मिनटों में उसने लड़की के हर एक तर्क और विचार को अपने
तर्कों और तथ्यों से लगभग धराशायी कर दिया था। उसने विषय को तीन हिस्सों में
बाँटकर युवा शब्द की एक व्यापक और विस्तृत परिभाषा विकसित की थी जिसमें सिर्फ़
महानगरों के ही नहीं बल्कि गाँवो और कस्बों के सामान्य युवा भी शामिल थे। चूँकि
बोलने वाले अधिकांश लड़के-लड़कियों की पृष्ठभूमि शहरी थी इसलिए उनके बोलने में युवा
शब्द का मतलब सिर्फ नगरों और महानगरों में रहने वाले लड़के और लड़कियां थे। उन सबने
सिर्फ़ उनके ही जीवन शैली को विषय से जोड़ा था। इस मामले में लड़के ने अपनी दृष्टि से
एक नए सीमांत का सृजन किया था।
लड़का तालियों के शोर के बीच मंच की सीढ़ियों से उतरा।और
इस बार ग्रीट करने की बारी लड़की की थी। लड़के ने दूर से ही लड़की को मुस्कुराकर जवाब
दिया। लगभग दो दिनों तक चली इस स्पर्धा में यह तय हो गया था कि चैंपियनशिप की
ट्रॉफी इसी लड़के या लड़की में से ही कोई एक उठाकर ले जाएगा। कुछ ही घण्टों में
परिणाम आने थे।
सभागार का वातावरण ऐसा था कि मानों सबकी साँसे ऊपर- नीचे
हो रही हों। जिन्होंने बोला था वो भी और जो सिर्फ सुनने के लिए आए तो उनको भी इस
चैंपियनशिप के परिणाम का बेसब्री से इंतज़ार था। इन सबके बीच लड़की ने लड़के को देखा
कि लड़का अपने बोलने के कुछ ही समय बाद बिना परिणाम की प्रतीक्षा किए ऑडिटोरियम के
बाहर चला गया था। लड़के के बाहर निकलते ही लड़की की निगाहें उसके वापस ऑडिटोरियम में
आने का इंतज़ार कर रहीं थीं। यह इस कहानी का पहला क्षण था जहां लड़की पहली बार लड़के
के लिए कुछ महसूस कर रही थी। लड़की की बेचैनी को उसकी देह-भाषा से साफ़ पहचाना जा
सकता था। प्रेम के शिवाले में अब दो घण्टियाँ एक साथ बजनी थीं। जहां दोनों की
इबादतें एक-दूसरे के लिए एक ही साथ होनी थीं।
तरुणाई का प्रेम ऐसे ही आगे बढ़ता है..!
***
हम सभी अपने जन्म से ही स्पर्धा में हैं। जब तक साँसे
हैं, यह स्पर्धा कभी ख़त्म नहीं होती। इन स्पर्धाओं में हम कभी जीतते हैं। कभी
हारते हैं। पर,कभी ऐसा भी होता है कि जहां स्पर्धाएं खुद ही हार जाती हैं। ज़िन्दगी
हमें वहां लेकर चली जाती हैं जहां हार-जीत के मायने ही ख़तम हो जाते हैं। लड़के को
बचपन में दादी माँ से सुना वो किस्सा याद आ जाता है। जिसमें एक राजकुमार अपने राज
महल से निकला तो युद्ध के लिए होता है किंतु युद्ध के मार्ग में विश्राम के क्षणों
में किसी उपवन में उसकी दृष्टि सरोवर में स्नान कर रही एक अनिद्म सुंदरी पर पड़ती
है। वह उसके मोह में ऐसा बिंधता है कि अपने सीने से कवच और अपनी तलवार निकालर अपने
सेनापति को सौंप देता है और समस्त राज-वैभव से स्वयं को मुक्त कर लेता है। वह उस
देवानां पिय मगध सम्राटअशोक की तरह हो जाता है जो कर्मनाशा नदी के तट पर बने मंदिर
में देवी की प्रतिमा के समक्ष अपना रक्तरंजित तलवार रखकर कह देता है-
" वह अब युद्ध नही प्रेम में है।"
प्रेम ऐसा ही होता है। प्रेम व्यक्ति को निहत्था कर देता
है।
प्रेम की अलौकिक दीप्ति में देश-काल की सारी सीमाएं और
तटबंध पिघलकर टूट जाते हैं। प्रेम में दो अलग-अलग रंग अलग नहीं रह जाते। वे आपस
में मिलकर एक नया रङ्ग बुन लेते हैं। कोई आवश्यक नही कि प्रेम का रङ्ग हमेशा
गुलाबी ही हो। वह लाल और नीला मिलकर बैंगनी भी हो जाता है। हर प्रेम का एक अलग
रङ्ग होता है। वह रङ्ग किसी रंगरेज़ से माँग कर नहीं मिलता। वह मिलता है तो हमेशा चुराकर।
प्रेम माँगने से नहीं मिलता। वह बिन माँगे वरदान की तरह होता है।
पंजाब यूनिवर्सिटी के हज़ार लोगों के बैठने सकने की
क्षमता वाले उस विशाल सभागार में दर्शकों और प्रतिभागियों का कोलाहल पागल कर देने
वाला था। लड़के ने बेहद ही निकट के अंतर से लड़की को हराकर चैंपियनशिप जीत ली थी।
लड़का अगर सिर्फ स्पर्धा में होता तो वह अपनी भावनाओं को सम्हाल लेता । लेकिन चूँकि
वह प्रेम में था इसलिए अपने अश्रु- कणों को बाहर आने से रोक नहीं सका था। लड़के के
कर्ण -पट और ललाट उत्तेजना खुशी और प्रेम के मिले-जुले तनाव से रक्ताभ हो आए थे। कौन
कहता है कि लड़के रोते नहीं हैं। लड़के रोते हैं। बस अपने अश्रु - कणों को दुनिया की
निगाहों में आने से पहले ही वाष्पित कर ले जाते हैं। सृष्टि ने पुरुष को ऐसे ही
निर्मित किया है। बशर्ते वह प्रेम में हों।
उस भीषण शोर के बीच राज्य के महामहिम राज्यपाल ने लड़के के
हाथों में शील्ड देते हुए उसे उसके भविष्य के लिए शुभकामनाएं दीं। लड़के ने कैमरे
और दर्शकों की ओर देखकर मुस्कुराने की भंगिमा बनाई। वह एक हाथ में शील्ड और दूसरे
हाथ में पुरस्कार राशि के रूप में मिला चेक लेकर सीढ़ी से नीचे उतर रहा था तो दूसरी
ओर लड़की अपने पारितोषिक के लिए सीढ़ी से ऊपर चढ़ कर मंच पर जा रही थी। उस वक़्त सीढ़ी
के किसी एक पायदान पर लड़के और लड़की के क़दम एक ही साथ पड़े थे। प्रेम की सीढ़ी भी ऐसी
ही होती है जहां हम क़दमों के क़दम अलग-अलग लेकिन एक ही साथ ही पड़ते हैं। दुर्भाग्य
से यह प्रेम नही स्पर्धा का मंच का था। यहां दोनों में से किसी एक को जीतना था और
किसी एक को रनर-अप होना ही था। स्पर्धा के इस मंच पर भाग्य लड़के के साथ था। लड़की
को रनर-अप ट्रॉफी मिली थी।पिछली बार की ही तरह।
शाम को पंजाब यूनिवर्सिटी और मिलिंडा गेट्स फाउंडेशन की
ओर से सभी यूनिवर्सिटी के प्रतिभागियों के लिए रात्रि भोज का आयोजन किया गया था ।
लड़के और लड़की को पहली बार स्पर्धा की परिधि से बाहर निकल कर मिलना था। प्रेम के
मंच पर लड़के की नियति का फैसला होना अब भी शेष था।
लड़का प्रेम में निहत्था था।
***
चंडीगढ़ का मौसम ठंड में बर्फ हो रखा था। फिर भी लड़के-लड़की
के संभावित प्रेम की ऊष्मा ने वितान में ताप बनाए रखा था। लड़की को वापस कश्मीर
अपने होस्टल लौटना था और दोनों के बीच समय मोम की तरह पिघल कर कम से कम होता जा
रहा था। जब समय कम हो और भावनाएं अनंत तो ह्रदय के तार अपनी नियत गति से विचलित हो
ही जाते हैं। आज यह विचलन देखने लायक था।
हॉल में मद्धम प्रकाश और मधुर किंतु मंथर संगीत के बीच
विदा समारोह का आयोजन प्रारंभ हो चुका था। लड़के और लड़की को वहां उपस्थित गणमान्यों
और आगन्तुकों ने अपनी बधाईयां और शुभकामनाएं प्रेषित कीं। उन्होनें उसे फूल की तरह
इकट्ठा भी किया । स्पर्धा की प्रकृति तो प्रतिद्वंदिता है। पर यहां अलग ही तंतु
विकसित हुए थे। स्पर्धा के तारों ने उन दोनों तरुणों को आपस में मोह में बांध दिया
था। यह विलक्षणता प्रेम में ही संभव है। वह दोनों साथ ही खड़े थे और ऐसे लग रहे थे
जैसे समय के तुहिन कणों ने उनका एक तैल चित्र बनाकर दीवार पर टाँग दिया हो। वो
दोनों एक फ्रेम में किसी चित्रकार की अब तक की सर्वश्रेष्ठ पेंटिंग की तरह ही लग
रहे थे। प्रेम का वरदान ऐसा ही होता है। इन्द्रियों की अनुभूति से परे। अलौकिक और
अद्वितीय।
दोनों निकट आ चुके थे। उन्होंने मिलकर अपने लिए एक टेबल
तलाशी और जाकर वहां बैठ गए। पहली बार दोनों इतने करीब थे। लड़की और लड़के के मध्य
अपरिचय की दीवार धीरे-धीरे ढह रही थी। एक मोम पिघल सा रहा था। एक दिया जल सा रहा
था। उनके बीच एक नदी बह सी रही थी। लड़का पहली बार लड़की को नजरें भर के देख पा रहा
था। लड़का जैसे किसी स्वप्न में हो। इसी खूबसूरत पल में लड़की ने कहा-
'मैं खुश हूँ आपके लिए। आपने बहुत मेहनत की थी।'
लड़का जैसे किसी ख़्वाब से जागा। उसे समझ नही आया कि वह
क्या कहे। उसके मुँह से बस इतना ही निकला-
" थैंक्स।"
"लाइब्रेरी में मैंने देखा। आपने भी तैयारी डूब कर
की थी। आपको भी बधाई।" लड़के ने कहा।
"हाँ। मैं दूसरी बार रनर-अप रही।" लड़की ने
शांत भाव से कहा।
लड़का जवाब में कुछ न बोल सका। कभी -कभी सांत्वना के शब्द
भी इंसान को गहरी चोट पहुंचा जाते हैं। अपनी जिंदगी में मिली हारों से लड़का इतना
तो सीख ही गया था।
बात बदलकर लड़के ने कहा-
"मैं कभी कश्मीर नही गया। कितनी खूबसूरत जगह है
आपकी यूनिवर्सिटी।"
" बेशक...! जन्नत का दूसरा नाम है कश्मीर।"
लड़की ने कहा।
"हम्म्म्म..!" लड़के ने एक गहरी साँस लेते हुए
कहा।
(जैसे लड़के ने मन में ही दोहराया हो-हमी अस्तो। हमी
अस्तो। हमी अस्तो।)
जो आपस में अभी तक तर्क में थे वो अब प्रेम में थे। कम
से कम लड़का तो प्रेम में ही था। लेकिन यह भी है कि बिना परिचय के प्रेम कैसा?
दोनों के बीच अपरिचय की दीवार अब भी बनी हुई थी।
"सब कुछ कितना खूबसूरत है न?" ये शहर। यहाँ की
झीलें। यहां के गार्डन्स। " लड़की ने कहा।
"हाँ। वाक़ई। " लड़के ने प्रत्युत्तर में कहा।(
वह वो नही कह सका था जो उसके मन में था। "तुमसे ज़्यादा नहीं।" लड़के ने
मन ही मन सोचा।)
प्रेम की यात्रा में कितना कुछ अनकहा ही रह जाता है। कई
बार पूरी यात्रा समाप्त हो जाती है लेकिन एक कहा ज़िन्दगी भर अनकहा ही रह जाता है।
लड़के को पारो के देवदास का स्मरण हो आया। पारो को हासिल करने की यात्रा में अपने
प्राण तज देने तक कितना कुछ अनकहा रह गया था उसके भीतर। वह अनकहा शायद आज भी कहीं
इस सृष्टि में तैर रहा हो। प्रेमी -प्रेमिकाएं दुनिया से चले जाते हैं। उनका प्रेम
यहीं रह जाता है। सच्चा प्रेम कभी नहीं मरता। वह शिव की तरह अमर है । लड़के का
ह्रदय भावनाओं के ज्वार में दग्ध हो चला था। वह लड़की के साथ सहज मित्रता के पलों
में पहुंचकर अभिभूत था।
" कल जा रही हो? लड़के ने मासूमियत से कहा।
"नहीं । मैं परसों जा रही।" लड़की ने कहा।
"अरे वाह.!!" लड़के ने चमकती आँखों से कहा।
"अगर हम अब दोस्त हो गए हों तो कल क्या हम साथ झील
घूम सकते हैं?" लड़के ने बड़ी हिम्मत से पूछा।
"हम जा सकते हैं। पर उसके पहले मुझे अपने कुछ काम
पूरे कर लेने होंगे।" लड़की ने बहुत सामान्य होकर जवाब दिया।
क्या तुम्हें मेरे मदद की जरूरत होगी? ( लड़के ने मन ही
मन सोचा।)
कुछ ही पलों पहले जहां लड़के को लड़की की एक झलक तक अलभ्य
थी वहीं अब लड़की मित्रता की सीमा में थी। तरुणाई का प्रेम ऐसे ही बढ़ता है।
लज्जा,संकोच,संशय और सवाल के अनगिन बादलों के बीच। प्रेम की शुरुआत आकर्षण से ही
होती है। प्रेम के उन पलों में वे प्रकृति और विज्ञान के इसी नियम से संचालित हो
रहे थे।
वह दोनों समारोह में सबसे विदा लेकर एकसाथ ही अपने-अपने
कमरों को चल पड़े। दोनों आपस में दुनिया-जहान की बातें करते हुए चले जा रहे थे। वो
मुस्कुरा रहे थे। चलते-चलते उनकी हथेलियां बीच-बीच में आपस में टकराकर लौट आ रहीं
थीं। वे बड़े धीमे क़दमों से आगे बढ़ रहे थे। लड़के नें चलते-चलते ही कल्पना की..
-काश..! ये सड़क कभी खत्म ही न होती। काश ये वक्त ठहर सा जाता। काश..! लड़के के
दिलों में काश का एक महासमुद्र सा उमड़ आया। पर काश तो 'काश' ही होता है।
लड़की को छोड़ने लड़का उसके गेस्ट हाउस तक आया था। लड़की के
गेट बंद करने का दौरान उसका आँचल गेट में ही फँस गया। लड़के ने झुकते हुए आहिस्ता
से लड़की का आँचल अपने हाथों में लेकर उसे सौंप दिया। लड़की का चेहरा लाल हो आया।
उसने उसे शुक्रिया कहा और एक स्मित मुस्कान के साथ उसे रात्रि की विदा दी। लड़का
लौटते क़दमों से अपने कमरे पर आ गया। लड़की का वह गेट पर फँस गया आँचल रात भर उसकी
आँखों में चुभता रहा। लड़की के जामुनी होठों की चपलता ने उसे रात भर सोने नहीं
दिया। उसके गालों के भँवर में वह एक मछली की मानिंद चक्कर काटता रहा। वह उस लड़की
के साँवले वर्ण में कहीं गहरे उतर सा गया था। उसने महसूस किया कि वह लड़की के प्रेम
में खुद भी गौर से श्याम होता जा रहा था।साँवला रङ्ग लड़के का प्रिय रङ्ग था। लड़का
लड़की के गहरे आकर्षण में था। रात हो गई थी और वह उसके मोह की झीनी-झीनी-बीनी
चदरिया तानकर सो गया था।
लड़की को अगले ही दिन कश्मीर अपने कॉलेज लौट जाना था।
दोनों के बीच सिर्फ़ एक दिन की ही नेमत शेष थी। लड़के को सुबह का बेसब्री से इंतज़ार
था। उसे कल लड़की के साथ झील के किनारों पर दुनिया-जहान की बातें करते हुए चलना जो
था। आकर्षण और प्रेम का वह मिश्रित क्षण विलक्षण था।
लड़का इंतज़ार में था....!
***
झील घूमकर वे दोनों कल ही वापस आ चुके थे। लड़की को आज
लौटना था। आज की घड़ी आँसुओं की घड़ी थी।
लड़का रात भर जागता रहा था । वो जागता रहा था,क्योंकि
लड़की को आज लौट जाना था। लड़की को लौट जाना था जैसे परदेश से लौट जाता है कोई
प्रवासी पक्षी। जैसे तट से लौट जाता है सागर का पानी। जैसे सरहदों से लौट जाता है
मॉनसून। जैसे पते से लौट जाती है कोई चिट्ठी ! लड़की का लौट जाना इम्तियाज अली की
फिल्मों के उस क़िरदार की तरह था जहां दुःख और अमर्ष के सिवाय और कुछ नहीं था। वे
दोनों आज बिछड़ रहे थे...! लड़के के दिल का ज्वार अहमद फ़राज़ के इस ख़्याल से हमख्याल
हो आया कि-
"हुआ है तुझ से बिछड़ने के बा'द ये मा'लूम।
कि तू नहीं था तेरे साथ एक पूरी दुनिया थी।"
लड़की ने भी महसूस किया कि उसके भीतर कहीं कुछ छूट सा रहा
है। कुछ है जो यहीं रह जाएगा। लड़की को अपने ही भीतर कुछ टूटता हुआ सा लगा। लड़की को
याद हो आया कि कल झील पर जब वो दोनों साथ थे तो कैसे लड़के ने एक हरे पत्ते पर
लिखकर पूरी अभ्यर्थना से उसका दिल माँगा था और ऐसा करते वक्त अपनी आँखें मूँद लीं
थीं। लड़के ने कहा था कि अगर उसका जवाब हाँ है तो वह वो पत्ता अपने साथ लिए जाएगी।
अगर उसका जवाब ना है तो उस पत्ते को इसी झील में बहा देगी। लड़की वो पत्ता अपने साथ
लिए आई थी। लड़की ने उसका प्रणय स्वीकार करते हुए एक दूसरे पत्ते पर लिखकर कहा था -
" मुझे कुछ वक्त चाहिये होगा।"
प्रेम की गति ऐसी ही होती है। सब कुछ एक ही दिन में नहीं
होता। प्रेम को पगने में वक्त लगता है। प्रेम को वैसे ही आहिस्ता-आहिस्ता पगना
होता है जैसे कुम्हार अपने कच्चे घड़े को आँच में पगाता है। धीमे-धीमे।
मद्धम-मद्धम।
लड़की को छोड़ने लड़का स्टेशन तक आया था । लड़की ट्रेन में
बैठ चुकी थी। लड़के को बहुत कुछ कहना था। बहुत कुछ बताना था। बहुत कुछ जताना था। पर
वक्त की अपनी सरहदें थीं। कुछ ही देर में ट्रेन चल देने को थी । जो सिग्नल अभी लाल
था वह पीले में बदल गया था। वह पीला अब हरे में बदलने वाला था। ट्रेन में लड़की
अपनी यूनिवर्सिटी के तमाम दोस्तों के बीच चुपचाप बैठी हुई थी। सब हँस-बोल रहे थे
पर वह शांत थी। इस कोलाहल में वह विदा शब्द के अलावा लड़की को और कुछ नही कह सकता
था।प्रेम को एकांत चाहिये होता है। ट्रेन का सिग्नल अब हरा हो गया था। लड़के के दिल
की धड़कनें त्रिगुणित हो गईं थीं। लड़की ट्रेन के उस शीशे की विंडो के बाहर लड़के को
अब भी देख रही थी। वह उसकी धड़कनों को विंडो के इस पार भी सुन सकती थी। लगता था
जैसे उन दोनों के दिलों की धड़कनों के सम्मिलित आवेग से वह काँच की खिड़की टूट
जाएगी।
पटरियां ट्रेन को लेकर चलीं गईं। लड़का स्टेशन पर अकेला
रह गया था। लड़का रुँधे गले और अश्रु-विगलित नेत्रों से धीमे कदमों से अपने कमरे पर
लौट आया। उसे भी लौटना ही था। लड़के ने अपने ख़्वाब में रेल की पटरियों पर अपनी
मोहब्बत के फूल बिछा दिए थे। ट्रेन उन फूलों से गुज़रते हुए चली जा रही थी।...उसकी
अपनी ही आत्मा को लिए..! दूर बहुत दूर...!
लड़का भी चंडीगढ़ से लौट आया था। वो अपने दिल में पूरा
कश्मीर लिए लौटा था। वो दरख़्त। वो झेलम। वो झील सब उसके साथ आ गए थे।
आने के बाद भी लड़के और लड़की के बीच खतो-किताबत होती रही
थी। एक बार लड़की ने ख़त लिखकर लड़के को कश्मीर बुलाया था अपने पास। लड़का गया भी था।
लड़की ने अपने कमरे से लड़के को वही डल झील दिखाई थी जो वह अपने अकेलेपन में घण्टों
बैठकर देखा करती थी। वह लड़के को उस पुराने दो सौ तिरालीस सीढ़ियों वाले शिव मंदिर
पर भी ले गई थी जहां से पूरा श्रीनगर शहर एक ही निगाह से देखा जा सकता था।
उन्होंने एक-दूसरे के काँधे पर सिर रखकर अपने सारे गम-ग़लत किए थे। लड़के ने हाथों
से लड़की के जुल्फें सँवारीं थीं। चिनार के पत्तों पर वो एक साथ हमकदम होकर चले थे।
वो डल की जमी बर्फ पर साथ दौड़े थे।
लड़का दिल्ली अपने होस्टल वापस लौट आया था। लड़के ने भी
उसे दिल्ली बुलाया था। उसने उसे ताज़महल ले जाने का भी वादा किया था। उसने कहा था -
"जब तुम आओगी तो हम ताजमहल भी चलेंगे।" लड़के के पास आगरा घूमने के हज़ार
मौके थे पर वह कभी नही गया था। उसे लड़की के साथ ही जाना था।
प्रेम की जैसे हर कहानी का अंत होता है। इस कहानी का भी
अंत होना था। लड़की दिल्ली कभी नही आ सकी। पतझड़ के मौसम में जब दिल्ली के पेड़ों से
एक-एक करके सारे पत्ते झड़ रहे थे तभी सितम्बर की 23 तारीख की अल-सुबह लड़के को
डाकिए ने एक चिट्ठी थमाई। चिट्ठी कश्मीर के उसी नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी
से आई थी.! बस इस बार भेजने वाली वो लड़की नहीं कोई और थी।
चिट्ठी में अँग्रेजी में लिखा था-
I am extremely sorry to write that your friend Anusha
is no more in this futile world. Her soul had departed from this world on17th
of this month. She was suffering from heart cancer and was diagnosed at very
last stage..!
Please keep her in your thought and prayers..! We are
sorry for the loss..Please accept our deepest condolences..!
लड़की ने दुनिया से विदा ले ली थी। उसे जिस क़िस्म का
कैंसर हुआ था वह बहुत विरला ही था। चिट्ठी गर्ल्स हॉस्टल के वार्डन ऑफिस से आई थी।
जिसके लिफ़ाफ़े पर दाईं ओर लिखा था-" तमसो मा ज्योतिर्गमय"..! लड़की अंधकार
से प्रकाश की ओर चली गई थी। वह उस चिर प्रकाश में समय से बहुत पहले लौट गई थी।
चिट्ठी में आगे यह भी लिखा था कि उसे विदेश की किसी
यूनिवर्सिटी की स्कॉलरशिप भी ऑफर हुई थी। लेकिन लड़की ने जाना तय नही किया था।
लड़का इस हादसे से कभी उबर नहीं सका। वह अपने दिल मे अपने
गम का ग्लेशियर लेकर सालों भटकता रहा । बरसों तक उसके पास उसकी यादों और उस शॉल के
सिवा कुछ नहीं था जो उसे लड़की ने चंडीगढ़ में उस रात कमरे की ओर लौटते हुए दिया था।
लड़के ने लड़की को वो शॉल कभी नही लौटाई।
लड़के के पास पीला पड़ चुका वो पत्ता भी था जिस पर लड़की ने
लिखा था-
" मुझे कुछ वक्त चाहिये होगा।"
लड़की ने अनंत काल तक का वक़्त ले लिया था।
लड़की प्रेम में समय हो गई थी..!
किसी दुःखान्त और सुखांत की सीमा से परे...!
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