नवोत्पल गुरुवारीय विमर्श

 


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नवोत्पल ने तकरीबन छः माह पहले एक अभियान शुरु किया था, जिसमें कवि की किसी एक रचना पर सहज टीप के साथ साझा करने का प्रयास है। साहित्य जिसमें सहित का प्राण सन्निहित है, वह जब-तब एक्सक्लुसिव हो निष्प्राण ना होने लगे; यह सोचा गया कि-सबसे लोकप्रिय विधा कविता पर टिप्पणियां ली जायें, जो सहज हों एवं स्वाभाविक हों। 

सामूहिक प्रयासों से आप सभी के शुभ प्रेरणाओं से आज पचीसवीं प्रविष्टि आपके समक्ष है.

इन पच्चीस हफ़्तों में निश्चित ही नवोत्पल को असीमित प्रेम प्रोत्साहन प्राप्त हुआ है जिसका नवोत्पल परिवार आभारी है और हमेशा ही उन शुभाशाओं का आकांक्षी रहेगा. 







3 comments:

  1. बहुत से ब्लॉग किसी कवि की कविता (या 4-5 कवितायें) प्रस्तुत करते हैं और कुछ सभी कविताओं पर एक छोटी सी टिप्पणी के साथ इन कविताओं को अपने ब्लॉग पर जगह देते है। लेकिन किसी पाठक को सहज या विशेष रूप से कोई एक ही कविता पसंद आई हो या फिर ऐसा भी तो हो सकता है ना कि किसी रचनाकार ने कुल एक ही कविता लिखी हो !!! ये एक कविता ही अपने बहुत से आयामों और बिम्बों की वजह से बहुत कुछ कहना चाह सकती है। और कोई पाठक उस पर ही अपनी बात कहना चाहे तो ?
    उसी एक कविता पर एक टिप्पणी के साथ कविता को ब्लॉग पर स्थान देने का विचार नवोत्पल समूह को आया, और फिर थोड़ी हिचक और संकोच के साथ शुरुआत भी की गयी ।
    जब शुरुआत हुई तब हम सभी इसकी सफलता के लिए आशान्वित थे , लेकिन मन के गहरे भीतर छुपी हुई आशंकाएं भी थीं । कई बार ऐसा लगा कि शायद हम समय पर कविता प्रस्तुत नहीं कर पाएंगे , लेकिन तभी किसी न किसी मित्र और शुभचिंतक ने हमे उबार लिया और देखते ही देखते हम सिल्वर जुबिली पर पहुँच गए वो भी बिना किसी अंतराल के ।
    व्यक्तिगत रूप से मैं उन सभी कवियों का आभारी हूँ जिन्हों ने हमारे मांगे जाने पर अपनी कविता हमे सहर्ष दी , विशेष रूप से आभारी उन टिप्पणीकारों का हूँ जो टिप्पणी लिखने को न सिर्फ मान गए, बल्कि समय पर टिप्पणियाँ भी दीं । (तमाम मनुहार के बाद माने कवियों और टिप्पणीकारों का भी धन्यवाद ।)
    टीम नवोत्पल को भी हार्दिक शुभकामनायेँ ।

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    1. आपकी प्रेरणा व साहचर्य अहम हैं भैया

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  2. राष्ट्रकवि रामधारीसिंह दिनकर की जन्म जयंती पर
    कोटि-कोटि वन्दन - अभिनन्दन


    जनगण का आह्वान

    तानाशाही सरकारों के,
    राज बदलते देखे है ।

    पूर्व निकले सूरज भी,
    पश्चिम में ढ़लते देखे है ।।

    सिंहासन के ताज तुम्हारे,
    सिर पर हमने बांधे है ।

    पांच साल की खैर करों तुम,
    वक्त हमारे कांधे है ।।

    अभिमानों के ताज शिखर से,
    पैरों में गिरते देखे है ।

    पूर्व निकले सूरज भी,
    पश्चिम में ढ़लते देखे है ।।

    गर नही जागी सरकारें अब,
    लापरवाही मंहगी होगी ।

    फिर तो शासन, सिंहासन की,
    सता की कुरबानी होगी ।।

    सता की मीनारों के भी,
    गुम्बज बिखरते देखे है ।

    पूर्व निकले सूरज भी,
    पश्चिम में ढ़लते देखे है ।।

    तख्ते-ताज उखड़ने में भी,
    ज्यादा वक्त नही लगता है ।

    धोखे पर धोखा और शोषण,
    लोकतंत्र में नही चलता है ।।

    आंधी और उपहार समय संग,
    जनगण में पलते देखे है ।

    पूर्व निकले सूरज भी,
    पश्चिम में ढ़लते देखे है ।।

    और डेल्टा सी बेटियों, की,
    कितनी कुरबानी होगी ।

    कब तक गूंगें, बहरों सी यह,
    अस्मत अपनी पानी होगी ।।

    सोये शेर बियावान में,
    भूखे मरते देखे है ।

    पूर्व निकले सूरज भी,
    पश्चिम में ढ़लते देखे है ।।

    समय आ गया है हाथों में,
    सूरज की किरणें बनने का।

    मानस रखो कुरबानी का,
    आगे आकर कुछ करने का।।

    हिम्मत वाली बातों से ही,
    पहाड़ लूढ़कते देखे है ।

    पूर्व निकले सूरज भी,
    पश्चिम में ढ़लते देखे है ।।

    सता के मद् में आंधे इन,
    नेताओं को कुछ नही दिखता ।

    सरे-आम घटनाओ ंमें भी ,
    लेकिन इनको कुछ नही दिखता ।।

    अभिमान के घोड़े थकते ,
    इतिहास बदलते देखे है ।

    पूर्व निकले सूरज भी,
    पश्चिम में ढ़लते देखे है ।।

    अब आया है समय साथियों ,
    चिन्तन के पथ पर उतरे हम ।

    ताकत का अहसास करा दे,
    और ठोकरों से उभरे हम ।।

    आम आदमी जब जब डोला,
    राज उखड़ते देखे है ।

    पूर्व निकले सूरज भी,
    पश्चिम में ढ़लते देखे है ।।




    कवि मुकेश बोहरा अमन
    जिला संयोजक
    राष्ट्रीय कवि संगम
    बाड़मेर राजस्थान
    8104123345

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